ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
धीरे-धीरे सब लोग चले गये। चिता के अंगारे राख होने लगे, किन्तु गंगा अपने दुःख-प्रवाह में जाने कहां बह रही थी। वह अपने स्थान से तनिक न हिली। उसे अत्यन्त खेद था कि बापू की मृत्यु का कारण वही बनी... उसके उठ जाने पर इस संसार में ऐसा कौन था जो उससे सहानुभूति करेगा। उसकी आंखों में दो आंसू उमड़ आए। उसने दृष्टि घुमा कर देखा, श्मशान घाट में वह अकेली ही थी। बापू की देह जल चुकी थी। काकी और रूपा मन्दिर से निकल रही थीं। उसे भी उनके संग स्नान के लिए नदी पर जाना था। वह धीरे से अपने स्थान पर से उठी। एक दृष्टि जलती हुई चिता पर डाली और एक अपनी हथेली में पड़े नोटों की गड्डी पर। उसे विचार आया कि कैसा विचित्र संसार है! बापू तो जीवन भर एक एक पैसे को तरसता रहा और बेटी जरा सी देर में पांच सौ रुपये कमाकर ले आयी। उसके होठों पर एक फीकी सी मुस्कान आई और नोटों की गड्डी चलती हुई चिता के शोलों की भेंट कर दी। सबेरे शामों में बदलते रहे और शामें रातों में। शरत् और मंजू ने तो रो-रोकर मन का बोझ हल्का कर लिया, किन्तु गंगा के मन पर धरा पत्थर हर दिन-प्रतिदिन, बोझल ही होता चला गया। उसके सुहावने स्वप्न अब नाग-से बनकर उसे डसने लगे। गालों की लालिमा मटमैली सांझ के समान मन्द पड़ गई। होठों की मधुर मुस्कान समाप्त हो गई।.... कोमल पंखुड़ियां मुर्झा कर सूख गईं। चौबेजी का ऋण, भाई-बहनों की देखरेख और जीवन की अनेकों जिम्मेदारियां, वह रात-दिन परिश्रम में व्य्स्त रहने लगी। रूपा सखी के दुःख से भली-भ्रांति परिचित थी। वह लाख यत्न करती कि किसी प्रकार उसका मन लगाए रखे, पर गंगा थी कि चिंता के सागर में डूबी जाती थी। कुछ ही दिनों में फूल सा खिला चेहरा ऐसा हो गया मानों वह वर्षों से बीमार हो। एक दिन सबेरे ही वह गंगा के यहां गई और उसे चिन्ता में खोए देखकर बोली-- ''अपना नहीं तो इन बच्चों का तो ध्यान रखो। तुम न मुस्कराओगी तो इन्हें कैसे हंसना आएगा.... आखिर जीवन तो चलाना ही है... ऐसे कब तक चलेगा?''
''रूपा! यह भी कोई बस की बात है? ''
''क्यों नहीं... मन अपना, मस्तिष्क अपना.... इन पर इतना भी बस नहीं तो जीना क्या?''
''हां बहन! वही सोचती हूं...जब इन पर बस न रहे तो मर जाना ही भला।''
''पगली हो गई है तू तो... जो मुंह में आया कह दिया। अच्छा छोड़ एक शुभ सूचना है।''
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