ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
|
2 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
ग्यारह
सूरज की पहली किरण ने जब चन्दन घाटी को छुआ तो चिता के शोले बंसी के शरीर को राख बना रहे थे। गंगा चिता के पास मौन खड़ी उन अंगारों को देख रही थी जिनकी गोद में उसका बापू ऐसी नींद सो रहा था जिससे कभी कोई न बच पाया। गंगा की आंखों में आंसू सूख चुके थे। उसे लगा कि उसका शरीर भी राख का एक निर्जीव ढेर बन गया, जिसमें न कोई विचार है और न कोई भावना।
चिता के पास ही बैठे गांव के जाने पहचाने व्यक्ति और बहुत से मजदूर जीवन का यह अन्तिम दृश्य देख रहे थे। इस दुर्घटना पर सबको हार्दिक खेद था। कुछ दूर हटकर मंगलू और प्रताप भी बैठे थे। मंगलू फूट-फूटकर रो रहा था। प्रताप गांव वालों के सम्मुख भीगी पलकों से, बंसी की स्वामिभक्ति के गुण गा रहा था। वह कह रहा था कि बंसी की इस अकस्मात् मृत्यु से उसका बायां हाथ अलग हो गया था। खेद था कि वह जीवन में उसके लिए कुछ न कर पाया, किन्तु इस दुख की घड़ी में उसने बंसी से अनाथ बच्चों की सहायता करने का आश्वासन दिलाया। नाटकीय ढंग से उसने जेब में से पांच सौ रुपये निकाले और एक ओर बैठी गंगा की झोली में डाल दिये। गंगा मौन और उदास बैठी रही। वह किसी पर अपने दुखी मन की व्यथा प्रकट न कर सकी। पास बैठे लोग प्रताप की इस दयालुता की सराहना कर रहे थे। उन्हें क्या पता कि जिस मालिक को वह देवतास्वरूप समझ रहे हैं; उसी चाण्डाल के माथे पर बंसी की हत्या का पाप है। वही इन बच्चों को अनाथ बनाने का उत्तरदायी है। इस समय वह रोकर, दान देकर अपने पाप पर पर्दा डालना चाहता है, गरीब का मुंह बन्द करना चाहता है। किन्तु मूर्ख है वह, इस दान की भी क्या आवश्यकता है उसे? यदि वह अबला उसके पाप को प्रकट भी कर दे तो भी उसका क्या बिगाड़ सकती है?... क्या यह समाज उसकी सुनेगा?... और सुनेगा तो क्या मान भी लेगा? और मान भी लिया तो क्या उसके सतीत्व को लौटा देगा? किसी में उससे बदला लेने का साहस है?
|