ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
सहमी हुई गंगा पीछे हटकर दीवार से चिपककर खड़ी हो गई। प्रताप ने झूमते हुए आगे बढ़कर उसकी कलाई पकड़नी चाही। गंगा अलग होकर दूसरे सोफे से जा चिपकी। प्रताप एक शिकारी बाज के समान तेजी से उसकी ओर लपका और उसे लपेट में ले लिया। गंगा जोर से चिल्लाई-''मालकिन.... मालकिन.....''
प्रताप एक भद्दी हंसी हंस कर रह गया और होठों को सिकोड़ते हुए बोला-- ''व्यर्थ चिल्लाने से क्या बनेगा.... बन्नो! तुम्हारी मालकिन को तो शहर गये लगभग महीना हो चला।''
''तभी धोखे से मुझे यहां ले आएं हो...''
''और क्या करता... सीधी उंगलियों से जब घी न निकले तो उन्हें टेढ़ा करना ही पड़ता है। तुम उस समय जीप में आतीं तो अच्छा था...'' यह कहकर प्रताप ने उसे अपनी ओर खींचना चाहा। गंगा ने जोर से अपने दांत उसकी कलाई में गाड़ दिए। प्रताप तड़प कर अलग हो गया, पर शीघ्र ही फिर एक शिकारी के समान उस पर झपटा। गंगा पीछे हटती गई और सामने की दीवार से जा लगी। प्रताप की पुतलियों में भयानक वासना नंगी नाच रही थी। उसने मेज पर रखी शराब की बोतल में से गिलास भरा और गटागट पीकर झूमते हुए बोला-- ''अरे डरती क्यों हो हमसे गोरी! आओ न... यह कहते हुए वह गिलास में थोड़ी शराब डालकर गंगा के निकट आया और गंगा के चेहरे पर झुकता हुआ बोला, ''प्यारी...''
''कमीना.... धूर्त... बदमाश...'' निर्बल की विवशता ने गालियों का रूप धारण किया।
प्रताप एक भद्दी हंसी हंसा और बदबूदार सांस गंगा के मुंह पर छोड़ते हुए बोला,''ऐसे न मानेगी तू...''
कुछ और बस न चला तो गंगा ने उसके मुँह पर थूक दिया। प्रताप क्रोध में आपे से बाहर हो गया। उसने झट चेहरे को उसी के आंचल से पोंछा और गिलास में भरी शराब गंगा के चेहरे पर दे मारी। गंगा तिलमिलाकर दूसरी ओर भागी, तब प्रताप ने पूरे बल से उसकी कलाई थाम ली। एक झन-सी हुई और मोहन की पहनाई हुई कांच की चूड़ियां टुकड़े-टुकड़े होकर फर्श पर गिर गईं। गंगा की कलाई घायल हो गई। वह चीखी, चिल्लाई, प्रार्थना की, पर उसकी हाहाकार कमरे की चाहरदीवारी में ही दबकर रह गई। प्रताप को बड़ी कठिनाई के बाद यह शिकार हाथ लगा था। वासना की आग आखेट की विवशता से और भड़कती है। गंगा अजगर की लपेट में थी। उसे यों लगा मानो भगवान स्वयं शैतान से डरता है तभी तो उसे मनमानी करने की खुले आम छूट थी।
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