ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा की आवाज घाटी में उसी समय गूंजी, जब बंसी उसकी खोज में बैसाखी टेकता गाँव की पगडंडी पर चला आ रहा था। दूर से बेटी की आवाज सुनकर वह घबरा गया और उसने अपनी चाल तेज कर दी। उसे बैसाखी के सहारे शीघ्र चलने का अभ्यास न था। हर पग पर वह लड़खड़ाकर गिरने लगता, फिर किसी प्रकार संभलकर आगे बढ़ जाता। उसे यूं लग रहा था मानो गंगा किसी आपत्ति में फंसी उसे सहायता के लिए पुकार रही हो। दूर प्रताप के बंगले की ओर एक लालटेन भागी जा रही थी। धुंधले प्रकाश में थोड़े फासले पर उसने दो परछाइयां-सी देखीं। बंसी का कलेजा धड़कने लगा। तेज चलने से उसकी सांस फूलने लगी थी।
यद्यपि उसने पूरी दम से बेटी का नाम लेकर पुकारा, किन्तु बीमारी, दुःख और बुढ़ापे ने उसे इतना दुर्बल बना दिया था कि वह आवाज केवल उसके अपने ही कानों तक समित रह गई। गंगा दूर जा चुकी थी। उस तक आवाज कहां पहुंच पाती। उसने अपनी गति और तेज़ कर दी।
इधर गंगा हांफती हुई प्रताप के बंगले में पहुंची। फाटक खुला था। उसने क्षण-भर रुककर मंगलू के चेहरे को देखा जहां धूल को पसीने ने छिपा लिया था। मंगलू ने रुककर छत के कोने के उस कमरे की ओर संकेत किया जहां प्रकाश दिखाई दे रहा था। गंगा अधीर हुई झट बरामदा फलांग कर सीढ़ियां चढ़ गई; जहां कमरे का द्वार खुला था।
एकाएक देहरी पर पांव रखते ही वह डर से कांप कर रह गई। सामने प्रताप बैठा अपनी मूंछों को संवार रहा था। वह पलटी और बाहर भागने लगी। झट से पीछे से किसी ने किवाड़ बन्द कर दिए। गंगा के पांव तले से धरती खिसक गई। उसने क्रोध से पलट कर प्रताप की ओर देखा। प्रताप हंस रहा था। साथ ही मेज पर शराब की बोतल और गिलास रखे थे। गंगा फिर पलटी और दोनों हाथों से किवाड़ को धकेल कर खोलने का प्रयत्न करने लगी पर बन्द किवाड़ न खुले। उसकी व्यर्थ चीख पुकार वहीं दब कर रह गई। घबराकर उसने कमरे की लम्बी-चौड़ी दीवारों को देखा। वह जाल में फंस चुकी थी। बाहर निकलने का कोई मार्ग न था। प्रताप ने पास रखी बोतल से गिलास में शराब उंड़ेली और एक ही घूंट में पीकर लड़खड़ाता हुआ गंगा की ओर बढ़ा।
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