ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
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गंगा मन ही मन बातों का तालमेल बिठा रही थी, जो बापू के पास जाकर घर कहनी होंगी। वह जानती थी कि घर पहुंचते ही बापू उस पर बरस पड़ेंगे, किन्तु उनका ममतापूर्ण हृदय शीघ्र ही उसे क्षमा कर देगा। ज्यूं-ज्यूं विलम्ब होता जाता उसकी चाल तेज होती जाती।
निर्जन सड़क को पार करके वह गांव के निकट आ पहुंचा थी। घाटी में बसे गांव का धुंधला प्रकाश अब स्पष्ट नजर आने लगा था और उसके मन का भय कम हो चला था। गांव के जलते दीपक उसके लिए आशा की किरण बन गए थे। सहसा इस नीरवता में अपना नाम सुनकर वह चौंकी। भय से उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई। हाथ में लालटेन थामे कोई उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। निकट आने पर गंगा ने उसे ध्यान पूर्वक देखा। यह मंगलू था, जिसका मुख लालटेन की पीली रोशनी में बड़ा भयानक लग रहा था।
''गंगा! तेरा बापू....'' अचानक रुककर करुण आवाज में मंगलू ने गंगा को पुकारा।
''क्या हुआ बापू को?''
''तुम्हें खोजने निकला था... अंधेरे में खड्डे में जा गिरा...'' वह लड़खड़ाई आवाज में बोला।
''कहां?'' गंगा की चीख निकल गई और होंठ थरथरा कर रह गए। उसने सिर से पिटारी उतार कर वहीं रख दी और मंगलू के होठों को देखने लगी जो अभी तक कांप रहे थे।
''वह तो भगवान ने सुन ली। मालकिन डोली में मन्दिर से लौट रही थीं। शोर सुना तो डोली रोक ली और बंसी काका को अपने घर लिवा कर ले गईं.... बंगले में....।'' मंगलू ने इस ढंग से यह बात कही मानो उसे बंसी से अत्यधिक सहानुभूति हो। गंगा पिटारी को वहीं छोड़कर बापू-बापू चिल्लाती ठेकेदार के बंगले की ओर भागी। मंगलू भी हाथ में लालटेन थामे उसके पीछे-पीछे भागने लगा।
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