ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
|
2 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
बाहर बरामदे में बैठा मंगलू अपने मालिक की अगली आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा था। गंगा की, रोने-बिलखने की आवाज व उसकी चीख-पुकार उसके कानों में गूंज रही थी। उसके मस्तिष्क-पट पर अबला के सतीत्व लुटने का दृश्य चल-चित्र के समान चल रहा था। पाप की इस कल्पना से उसका मन घबराने लगा। इस विचार से छुटकारा पाने के लिए उसने चिलम के लम्बे कश भीतर खींचे और सामने रखी लालटेन को देखने लगा जिसकी बत्ती शायद अंतिम श्वास ले रही थी। ऐसे ही भीतर धीरे-धीरे गंगा की सिसकियां धीमी पड़ रही थीं। एकाएक लालटेन भभकी, रोशनी तेज हुई और बुझ गई। चिमनी पर एक कालिमा जमी और तड़ाख से टूट गई। तभी एक कड़कती हुई आवाज सुनाई दी, ''मँगलू...'' मंगलू कांप उठा, चिलम हाथ से छूट कर धरती पर जा गिरी और उसने गर्दन उठाकर उधर देखा। बंसी फन उठाये अजगर के समान उसके सिर पर खड़ा पूछ रहा था- ''मंगलू... गंगा कहां है?'' यह कहते हुए क्रोध से बंसी कांप रहा था। बैसाखी को वगल में टिकाते हुए उसने दोनों हाथों से मंगलू को दबोचना चाहा। मंगलू की आंखों तले अंधेरा छा गया। वह संभला और दूसरे ही क्षण भागकर बंसी की पकड से बाहर हो गया।
बंसी ने उस बन्द द्वार को देखा जिससे मध्यम प्रकाश छन कर बाहर आ रहा था। बड़ी कठिनाई से बैसाखी के सहारे अपने शरीर को घसीटते हुए वह सीढ़ियां चढ़कर उस द्वार के सामने खड़ा हो गया। सहसा धमाके साथ किवाड़ खुला और गंगा बाहर निकली।
उझले बाल, मसले हुए बेढंगे वस्त्र और मुख पर बेबसी, दुःख और झुंझलाहट... बंसी के मुंह से चीख निकल गई और वह बैसाखी को वहीं छोड़कर दोनो हाथों से अपनी बेटी को सहारा देने को बढ़ा, किन्तु गंगा चिल्लाकर अलग हो गई-- ''मत छुओ बापू! मत छुओ मुझे... अब इस पापी शरीर को मत छुओ....'' यह कहते हुए गंगा सीढ़ियों से नीचे उतर गई। बंसी उसे पुकारता ही रह गया, किन्तु वहां रह गई केवल उसके स्वर की गूंज और गंगा देखते ही देखते रात की अंधेरी परछाइयों में लुप्त हो गई। बंसी लौटा और क्रोध में पागल-सा हुआ प्रताप के कमरे में खुले किवाड़ से भीतर चला आया। प्रताप शीशे के गिलास में मदिरा डाल रहा था। बंसी को देखते ही उसका नशा हिरन हो गया। क्रोध से बंसी की आंखों में लहू उतर आया था। उसने घृणापूर्वक अपने मालिक को देखा। उसकी दृष्टि विषाक्त हो रही थी। कालीन पर कांच के टुकड़े बिखरे हुए थे, जो कुछ देर पूर्व उसकी बेटी की क़लाइयों की शोभा थे। अब सब कुछ लुट जाने पर वह शोक मना रहे थे। बंसी को लगा कि मानो यह कांच के टुकड़े उसकी भोली-भाली बेटी की बिखरी हुई आकांक्षाएं हों।
|