ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''ओह कौन है वह?'' गंगा चमक कर बोली।
''कोई डाक्टर है... उनका मित्र...''
''यह बात तुम्हारे भैया ने अच्छी की है कि तुम्हारे लिए एक डाक्टर बाबू चुना है''
''क्यों?''
''तुम्हारा दिमाग जो कभी-कभी खराब हो जाता है, उसकी दवा-दारू तो करता रहेगा....'' गंगा ने उसे छेड़ा।
''चल री! मोहन की याद में बावरी तू हुई जा रही है और कहती है दिमाग मेरा ठीक नहीं।'' रूपा यों पलटी मानो रूठ गई हो।
गंगा ने सामने आकर मुस्करा कर उसकी ओर देखा। रूपा ने कंधे झटक कर मुंह फेर लिया और गांव की ओर हो ली। गंगा ने आगे बढ़कर उसे रोक लिया और उससे लिपट गई। दोनों की हंसी एक साथ छूट गई। गंगा ने रूपा के पास मुंह ले जाकर धीमे स्वर में पूछा----
''सच मेरे लिए कुछ नहीं लिखा तेरे भैया ने?''
''कलम से तो नहीं, हाँ आंखों से बहुत कुछ लिखा है.... ''
रूपा के इस पहेली-से उत्तर पर गंगा झेंप गई। रूपा ने कुछ देर रुक कर लिफाफे में से एक फोटो निकाली और मुस्कराकर सखी के हाथ में दे दी। यह फोटो मोहन की थी। वास्तव में उसने मन की पूरी दशा आंखों द्वारा प्रकट कर दी थी।
''रूपा के चले जाने के बाद गंगा वहीं खेत की मुंडेर पर बैठ गई और मन के मीत की तस्वीर को देखने लगी। उसके मन में एक गुदगुदी-सी हुई। वह अपने मोहन के साथ - एक सुनहरी भविष्य की कल्पना में खो गई, आने वाला जीवन कितना सुखद और मधुर होगा। एकाएक किसी विचार ने उसकी सुनहरी कल्पना को छिन्न-भिन्न कर दिया। उसे स्मरण हो आया कि उसका बापू बीमार था, और उसे काम के तुरन्त बाद बापू की दवाई लेने शहर जाना था। आज की मजदूरी को मिलाकर उसके पास दस रुपये जमा हो जायेंगे जिनसे वह बापू की दवाई ला सकेगी। यद्यपि, बंसी इस पक्ष में न था कि उस पर इतना व्यय किया जाये, फिर भी गंगा ने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि यह स्वयं बापू का इलाज करके ही रहेगी। उसने मोहन की तस्वीर को एक बार फिर देखकर चोली में छिपा लिया और काम में लग गई।
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