ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
दस
हरी-भरी घास की खेती झूम रही थी। जहां तक दृष्टि जाती मखमल-सी बिछी दिखाई देती। रूपा खेत की मुंडेर पर भागती हुई गंगा को खोज रही थी।
''गंगा, अरी ओ गंगा...'' सखी को दूर से ही देखकर उसने पुकारा। निरन्तर भागने से उसकी साँस फूल गई थी और बालों की लटें सिर से गालों पर खिसक आई थीं।
उसे यों तेजी से भागते देखकर गंगा स्वयं दौड़कर उसके पास आ गई और उसकी दशा देखकर बोली-
''अरी, क्या बात है? यह बिना जल की मछली क्यों बनी जा रही है?'' ''बात ही ऐसी है गंगा! गली-मुहल्लों, नदी-पनघट, खेत-खलिहान कोई भी तो स्थान नहीं छोड़ा तुम्हें खोजने में...''
''क्या बात है? इतनी उतावली क्यों हो रही है?''
''मिठाई खिला, मोहन की चिट्ठी आई है।''
''ओह मैं समझी तुम्हें कोई ससुराल से देखने आया है।''
''चल हट! एक तो हम मीलों दौड़कर तुम्हारे प्रीतम का सन्देश लाकर दें, तिस पर हमीं से छेड़खानी!''
''रूठ गई लाडो! अच्छा बोल क्या लिखा है?''
''अगले महीने छुट्टी मिली तो गांव आयेगा...हमसे मिलने...''
''और क्या लिखा है?''
''तुम्हारे बापू को राम-राम लिखी है।''
''और...?''
''मेरी गुड़िया के लिए शहर से गुड्डा लायेंगे...।''
''बस...?''
''उस पत्र को दो-चार बार ऊपर से नीचे तक पढ़ा, किन्तु तुम्हारा कहीं नाम नहीं।''
''पुरुष होते ही ऐसे हैं, जरा आंख से ओझल हुए तो दिल से दूर हो बैठे।'' गंगा यह कहकर काम पर लौटने लगी।'' अरी जाती कहां है... जानती है और क्या लिखा है!'' रूपा ने लपटकर उसकी बांह पकड़ ली और होंठों तले जीभ दबाते बोली-- ''ऊं हूं...''
''इस बार को गुड्डा वह आ रहा है, वह मेरी गुड़िया के लिए नहीं बल्कि मेरे लिए है...''
''मैं नहीं समझी...''
''मोहन भैया ने मेरे लिए एक लड़का देखा है...'' रूपा ने लजाते हुए कहा और दांतों तले अँगूठा लेकर दूसरी ओर मुंह फेर कर खड़ी हो गई।
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