ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा ने बापू को बात पूरी न करने दी और बीच में बोली, ''तुम्हें शायद अपनी बेटी पर विश्वास नहीं रहा बापू! विश्वास करो तुम्हारी गंगा निडर है... वह हर कठिन काम कर सकती है... मैं अब काम न करूंगी तो तुम्हारा क्या होगा... शरत् और मंजू का क्या होगा... मेरी तुम बिलकुल चिन्ता न करो, किसी की मजाल है जो आंख उठाकर भी देखे?''
वंसी बेटी के सामने कुछ न कह सका। वह उस डर, उस संशय को भोली-भाली बाला के सामने व्यक्त न कर सका जो उसे चिन्ता में डाले हुए था। यह अबोध लड़की जीवन की कठिनाइयों को न समझ सकेगी। वह उन कांटों से अनभिज्ञ थी जिनसे वह दुर्गम मार्ग अटा पड़ा था। बेटी के साहस को वह तोड़ना न चाहता था। स्नेह से उसे थपथपाते हुए बोला--
''बेटी, यदि तूने यही निश्चय किया है तो ठीक है। कोई भला-सा काम मिल आये तो अच्छा हो।... मैं उस कमीने ठेकेदार प्रताप की नौकरी करने की तुम्हें कभी आज्ञा नहीं दे सकता...'' प्रताप के नाम पर बंसी के माथे पर कई सलवटें उभर आईं।
दूसरे दिन से ही गंगा को खेतों पर काम मिल गया। धान की बुवाई हो रही थी और किसानों को काम करने वालों की आवश्यकता थी। मुंह-अंधेरे से दिन ढले तक वह काम में व्यस्त रहती। शाम को घर लौटती और भोजन बनाती, बापू का मन बहलाने का प्रयत्न करती। दिन-रात काम-काज में लगे रहने से उसके मन का बोझ तो हल्का हो गया, किन्तु बंसी के हृदय की पीड़ा बढ़ गई। वह अपाहिज और विवश था। उसे हर घड़ी एक ही चिन्ता खाये जा रही थी, कहीं गंगा पर कोई आपत्ति न आ आये, कहीं मोहन का मन फिर न जाये।
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