ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
बंसी पहिले ही निराशा से घिरा था, चौबे की बात सुन रुंधे गले से बोला- ''कुछ दिन रुक जाओ भैया! चुका दूंगा। अभी तो अस्पताल से आया हूं, फिर एक नौकरी का सहारा था, वह भी छूट गई।''
''तभी तो कहने आया हूं। तेरी नौकरी चली गई अब हमारे ऋण का क्या होगा? ब्याज मिलाकर कुल छःसौ से अधिक बनता है।''
''सब चुका दूंगा, चौबे। यह बुरे दिन क्या सदा रहेंगे?''
''और जो ठेकेदार से इतना धन लाये हो, वह सब अकेले ही पचा डालोगे?''
''कितनी बड़ी रकम है...केवल डेढ़ सौ रुपये...'' बंसी ने कांपते हाथों से जेब के नोट चौबे को दिखाते हुए कहा।
चौबे ने लपक कर वह नोट बंसी के हाथ से छीन लिये और गिनते हुए बोला, ''बंसी! हमसे ही हेरा-फेरी? निकालो बाकी। अरे! पूरे ग्यारह महीने की पगार मिली है...''
''सच भैया, गंगा कसम... बस इतना ही हाथ लगा है और घर में खाने को दाना तक नहीं।''
''तो मैं क्या करूं? इससे तो ब्याज भी पूरा नहीं होता। देखो बंसी। कहे देता हूं, यदि अगले महीने बाकी पैसे न मिले तो मकान नीलाम करा दूंगा.... अब के एक न सुनूंगा, मेरा नाम भी चौबे है।''
यह कह नोट जेब में डालता हुआ वह चलता बना। बंसी आश्चर्य से उसे देखता ही रह गया। उसके हाथों से बैसाखी छूट गई और वह लड़खड़ा कर गिरने ही वाला था कि गंगा ने लपककर उसे थाम लिया और सहारा देकर चारपाई पर लिटा दिया। अचानक बंसी के हृदय में जोर की पीड़ा उठी और वह सीना दबा के पड़ रहा। गंगा धीरे से बापू की छाती मलते हुए बोली-
''बापू! अब तो मैं तुम्हारी एक न सुनूंगी, मुझे घर को चलाने के लिए कोई मेहनत-मजदूरी करनी ही पड़ेगी वरना न जाने क्या हो...''
''नहीं बिटिया...।''
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