ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''कौन-सी अनुचित बात?'' बंसी के स्वर में स्वयं ही एक दृढ़ता-सी आ गई थी।
''यही, मजदूरों को इकट्ठा करके मेरे विरुद्ध बहकाना।''
''वह उन्हें क्या बहकायेगा मालिक! जिसे स्वयं जीवन ने बहका दिया हो। यह सब मूर्ख हैं, मुझे अपना अधिकार मांगने के लिए कह रहे हैं; किन्तु यह नहीं समझते कि अधिकार मानव से मांगा जाता है पशु से नहीं। विनती कोई उससे करे जिसके हृदय हो; पत्थरों से की हुई प्रार्थना महान् मूर्खता है।''
''बंसी!'' प्रताप कड़कते हुए बोला, ''जिन मूर्खों की तुम सहायता लेना चाहते हो वह इस घाटी के पत्थर से भी हीन हैं। इन्हें यह दो पैसे कमाने योग्य भी मैंने ही बनाया है...यदि इनमें से किसी ने भी सिर उठाया तो उसका वही परिणाम होगा जो बारूद फटने से किसी चट्टान का होता है।'' प्रताप की आंखें क्रोध से लाल अंगारा बनी हुई थीं।
बंसी चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा और फिर बड़े धैर्य से बोला, ''यह मत भूलो मालिक! इन निष्प्राण पत्थरों के सीने में भी धड़कन छिपी है और फिर यह बेचारे तो इन्सान हैं,'' यह कह कर बंसी ने एक बार कम्मो के उदास चेहरे को देखा और आगे बढ़ गया। जाते-जाते बंसी के कानों में कम्मो के यह शब्द पड़े, ''मालिक! बंसी काका झूठ नहीं कहता. वास्तव में इन निष्प्राण पत्थरों के सीने में भी दिल है...''
प्रताप को कम्मो के मुख से ऐसे शब्दों की आशा कदापि नहीं थी। उसने तीखी निगाहों से कम्मो को देखा और दफ्तर में वापिस लौट आया।
बंशी जब घर पहुंचा तो आंगन में चारपाई पर चौबे जी विराजमान थे। बंसी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ''आओ बंसी! बड़ी देर लगा दी तुमने।''
''क्या करूँ, बैसाखी से चलना पड़ता है, देर हो ही जाती है। जरा 'साईट' पर चला गया था,'' बंसी के स्वर में थकान झलक रही थी, जिसकी गवाही उसके माथे पर आई पसीने की बूंद दे रही थीं। चौबे को उसकी विवशता से कोई सरोकार न था। उसे और कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही चौबे ने ऋण का तगादा कर दिया।
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