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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''हां, हां...बंसी। लोगों ने अंधेरे में अपनी आंखों से मंगलू को भागते देखा है... वह तुम्हारे प्राणों का बैरी है।'' चौथा बोला।

बंसी के कानों में एक साथ कई आवाजें गूंज कर रह गईं। उसने दोनॉ हाथों से अपने कान बन्द कर लिए और बिना किसी की बात का उत्तर दिये बढ़ा चला गया।

पर एकाएक उसके पांव रुक गए। उसके सामने कम्मो खड़ी थी। वह पत्थर फोड़ते-फोड़ते उसे देखकर वहां आ गई थी। वह पहले से बहुत दुबली हो गई थी और बीमार दीख रही थी। उसके बाल उलझे और धूल में सने हुए थे और उसकी आंखों के नीचे गहरे काले गढ़े बने हुए थे। बंसी चुपचाप उसे देखता रहा। कम्मो आगे वढ़ी और बंसी के सामने खड़ी होकर बोली, ''हां बंसी काका! तुम्हें अपना अधिकार मांगना ही चाहिए।'' बंसी ने देखा अब उसके मुख पर चमक न थी; उस रात वाली हंसी न थी उसके होंठों पर। उसके चेहरे पर घोर उदासी थी जो एक भोली बाला के मुख पर होती है जिसे धोखे से वासना का शिकार बना कर कुचल डाला गया हो और अब जिसके पास न यौवन हो, न मान। हां, मन का पछतावा हो। वह बड़ी देर तक बंसी से दृष्टि न मिला सकी और जब उसकी आंख उठी तो उनमें आंसू थे।

बंसी को खड़ा देखकर फिर मजदूर उसके पास आकर इकट्ठे हो गये। अचानक पीछे से एक कड़कती हुई आवाज आई और अनमने मन से अपने-अपने हथियार उठा कर सब काम पर चले गये..। यह आवाज प्रताप की थी जो दफ्तर से बाहर निकल आया था और उन्हें व्यर्थ समय नष्ट करने पर बुरा-भला कह रहा था।

कम्मो और बंसी को एक साथ देखकर प्रताप का माथा ठनका। उसके मन में संशय उठा कि कहीं उससे बदला लेने के लिए बंसी कम्मो से कोई साज-बाज तो नहीं कर रहा। अपने भय को क्रोध में छिपाते हुए दूर से ही वह बोला-''देखो बंसी! कोई अनुचित बात तुमने की तो मुझसे बुरा कोई न होगा।''

बंसी ने कोई उत्तर न दिया। प्रताप आग-बबूला होकर उसके समीप चला आया। और फिर वही वाक्य दोहराने लगा।

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