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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''तुम ठीक कहते हो बंसी! मजदूरों की दवा-दारू पर व्यय किये हुए पैसे हम देते हैं, किन्तु तुम शायद भूल रहे हो कि तुम मजदूर नहीं थे, खजांची थे, पढ़े-लिखे क्लर्क थे...स्टाफ तो केवल सूखे वेतन का ही अधिकारी है। तुम्हारे लिए हमने इसके अतिरिक्त जो कुछ किया वह दया के नाते किया है, यह हमारी कृपा थी, इसलिए कि तुम सबसे पुराने सेवक थे... इसमें कानून का कोई दखल नहीं।''

''मैंने इतनी देर आप की सेवा की है सरकार! अब भाग्य ने मुझे अंगहीन कर दिया है। इस डेढ़ सौ से मेरा क्या बनेगा? क्या आप मुझ पर और दया नहीं कर सकते?'' रुंधे हुए स्वर में हाथ जोड़कर' वह बोला।

''समय-समय की वात है बंसी! फण्ड इससे अधिक की अनुमति नहीं देते... यह रहा तुम्हारा हिसाब और पैसे।'' उसने सामने मेज पर रखे कागज और पैसों की ओर संकेत किया, ''अब तुम आ सकते हो।'' यह कहकर प्रताप दूसरे काम में लग गया।

प्रताप का यह व्यवहार देखकर बंसी का कलेजा जल उठा। बीस वर्षों की सेवा का यह पुरस्कार मिला था उसे। पर वह कर ही क्या सकता था। मेज पर रखा हिसाब का कागज और डेढ़ सौ रुपये उठा कर मुंह लटकाये बैसाखी पर चलता वह दफ्तर से बाहर चला आया। बाहर कितने ही मजदूर उससे मिलने के लिए एकत्रित हो गये थे। एक ने पूछा- ''काका! क्या इनाम मिला स्वामिभक्ति का?''

बंसी ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ''बहुत कुछ मिला भैया। यह डेढ़ सौ रुपया और नौकरी से सदा के लिए छुट्टी-भाग्य की बात है-किसी का क्या दोष?''

''दोष क्यों नहीं - यह घोर अन्याय है - तुम इसके विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाते...बंसी काका?'' दूसरा बोला।

''मेरी मानो काका, तुम उस पर कानूनी दावा कर दो। तुमको नौकरी से अलग करने का उसे कोई अधिकार नहीं... '' एक और ने कहा।

''काका! यह समय से पहले चट्टान का फट जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं... यह एक चाल थी तुम्हें मारने की...'' तीसरे ने कहा।

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