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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

बंसी अमी तक अपने विचारों में खोया सिर झुकाये बैठा था। गंगा की बातों ने अचानक उसे झंझोड़ दिया। उसी की चुनरी के छोर से उसने। गंगा के आंसू पोछे और गले लगाते हुए बोला- ''पगली! रो मत, अभी तेरा बाप जीवित है। काम कर सकता है। ठेकेदार का द्वार भले ही बन्द हो गया हो किन्तु भगवान का द्वार तो खुला हुआ ही है... जिसने मुंह दिया है वह भोजन भी अवश्य देगा।''

गंगा की बातों से बंसी का साहस बढ़ गया। थोड़ी देर के लिए वह अपने भविष्य की चिन्ताओं को भूल गया। टांग कट जाने से उसे ग्यारह महीने का वेतन पेशगी मिलेगा... लगभग ग्यारह सौ रुपये। एक ही बार इतना धन मिल जाने के विचार से उसके हदय की रुकी हुई गति फिर से चलने लगी।

वह सोचने लगा, इन रुपयों से वह कोई और काम खोज लेगा। चौबे का काम वह करेगा ही, कुछ यहां से मिल जायगा। फिर वह दो-चार बच्चों को पढ़ा दिया करेगा; इससे घर का आटा-दाल चल जावेगा। उसका मकान पहले ही चौबे के पास गिरवी था.. क्यों न वह उसे बेच ही डाले ओर अच्छी खासी रकम लेकर उसके बदले में कहीं एक कोठरी किराये पर ले ले। ऐसा करने से यह सुगमता से गंगा का ब्याह कर सकेगा। मन ही मन वह कल्पना की कई कड़ियां बुनकर स्वयं को सान्त्वना देता रहा...

वह शायद इस बात वे अनभिज्ञ था कि इन मामूली कड़ियों का कोई महत्व नहीं, वास्तविकता की एक ही ठोकर से मकड़ी के जाले के समान यह टूट जाने वाली थी।

हुआ भी ऐसा ही। अगले दिन जब बंसी अपना हिसाब करने मालिक के यहां गया तो उसकी समस्त आशाओं पर पानी फिर गया। उसके हिसाब का खाता पहले से ही तैयार किया रखा था। पिछले महीनों की पेशगी और अस्पताल का खर्च निकालकर उसके पास केवल डेढ़ सौ रुपया बचता था जो प्रताप ने उसे गिना दिया। बंसी ने कभी सपने में भी यह न सोचा था कि ठेकेदार अपने कारिन्दे के इलाज के पैसे भी उसी के वेतन में से काट लेगा। वह गिड़गिड़ाकर बोला- ''मालिक दवा-दारू तो कानून के नाते आप ही पर आती है।''

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