ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
नौकरी चले जाने की सुनकर बंसी पर मानो बिजली गिर पड़ी? उसके हाथ-पांव कांपने लगे। कुछ देर तो उसे मंगलू की बात पर विश्वास न आया; किन्तु जब प्रताप ने उसी बात को दोहराया तो बेचारा आन्तरिक पीड़ा से कराह उठा। वह एक टांग से लड़खड़ाता हुआ चारपाई से नीचे उतरा और प्रताप के पांवों में गिर पड़ा।
मंगलू ने प्रताप के संकेत पर आगे बढ़कर उसे उठाया और फिर चारपाई पर बिठा दिया।
''बंसी! प्रकृति ने, भाग्य ने, भले ही तुमसे अन्याय किया हो, किन्तु कानून तुम्हें कभी धोखा न देगा। कानून से तुम ग्यारह महीने के वेतन के अधिकारी हो और निश्चिन्त रहो इसकी तुम्हें कौड़ी-कौड़ी मिलेगी।'' वह कहकर प्रताप बिना पीछे मुड़कर देखे चला गया।
बंसी को यों लगा मानो उसकी नाव के पतवार टूट गये हों और वह विवश-सा मंझधार में आ पड़ा हो... रूपा की मां उसी समय अपने घर चली गई थी; किन्तु गंगा द्वार से लगी दोनों की बातें सुन रही थी। उसके मन में तो आया कि बापू के समान यह भी बढ़कर प्रताप से पांव पकड़ ले और अपने बापू की नौकरी की भीख मांगे। पर यह ऐसा करने का साहस न कर सकी। उन लोगों के बाहर निकलते ही वह बापू के पास आई और उसे सांत्वना देने लगी। बंसी अपनी चिन्ता में डूबा किसी और ही दुनिया में खोया हुआ था। उसके कानों में मालिक का अन्तिम वाक्य गूंज रहा था। शायद वह उसे कानून का सहारा लेने का दण्ड देने आया था। उसकी समझ में कुछ न आ रहा था कि क्या करे क्या न करे।
जब बंसी बड़ी देर तक मौन बैठा रहा तो गंगा उसके पास जा बैठी और बोली-''बापू! तू न घबरा, मैं अभी जिन्दा हूं, यदि मेरे स्थान पर तुम्हारा कोई बेटा होता तो क्या जीवन का सहारा न होता? अब सब काम मुझपर छोड़ दो... मैं मजदूरी करूंगी, कहीं काम मिल ही जायेगा... घर चलाऊंगी... मंजू और शरद को पढ़ाऊंगी।'' यह कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा आई और आंसू पलकों में आ गिरे।
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