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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

नौ

एक महीना हस्पताल में रहने के बाद बंसी आज अपने घर लौटा था। दायीं टांग बेकार हो जाने के कारण काट दी गई थी। अभी वह बैसाखी का सहारा लेकर भी चलने के योग्य न हुआ था। उसकी अनुपस्थिति में उसके बाल-बच्चों की देख-रेख का भार रूपा की मां पर ही था। यदि वह भी इस दुर्भाग्य में आश्रय न देती तो जाने बंसी के घर की दशा क्या हो जाती।

''रूपा की मां! इतना बड़ा उपकार चुकाने के लिए तो कई जीवन चाहिये,.. यदि इन बच्चों की देख-भाल तुम न करतीं तो...'' बंसी ने घर में प्रवेश करते ही कहा।

''रहने दो भैया। बच्चे तुम्हारे हैं तो क्या मेरे कुछ नहीं लगते? इसमें उपकार की क्या बात है?''

अभी बंसी बैठ ही पाया था कि प्रताप की मोटर मकान के सामने आकर रुकी और मँगलू मालिक को लिए हुए आंगन में आ गया। रूपा की माँ उसे देखते ही गंगा को साथ लिए दूसरे कमरे में चली गई। प्रताप ने छिपी दृष्टि से गंगा के यौवन को निहारा और फिर बंसी के पास आकर इस घटना पर खेद प्रकट करने लगा। बंसी ने चारपाई से धड़ उठा कर मालिक के पांव छूने का प्रयत्न किया।

किन्तु मंगलू ने सहारा देकर उसे नीचे उतरने से रोक लिया।

''मालिक! आपने क्यों कष्ट किया? दो-चार दिन में मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाता! अव तो ठीक हूँ। बैसाखी के सहारे कुछ चल भी लेता हूँ।'' बंसी ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

''बंसी! अब तुम्हें बहुत आराम की आवश्यकता है... यह तो भगवान् की दया है कि प्राण बच गये... पर यह चोट और इस पर यह बुढ़ापा... अधिक हिल-जुल से कोई और आपत्ति मोल न ले लेना।'' प्रताप ने सहानुभूति प्रकट की।

''नहीं मालिक! यूं बैठे-बैठे तो काम न चलेगा। पहले ही मेरी अनुपस्थिति में काम रह गया होगा। फिर काम में मन लगा रहने से घाव शीघ्र भर जायेंगे।''

''बंसी काका! सरकार ने तुम्हारे स्थान पर दूसरा मुंशी रख लिया है... तुम्हारे लिए काम की चिन्ता का कोई कारण नहीं।'' मंगलू ने झट मालिक की बात स्पष्ट कर दी।

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