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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

रात का पहला पहर था। गंगा चूल्हे के पास बैठी भात पका रही थी। उसके होंठों पर हल्की मधुर गुनगुनाहट थी और नयनों में एक विशेष आभा। उसकी दृष्टि चूल्हे के दहकते हुए, कोयलों पर जमी थी। कोयले घीरे-धीरे जल रहे थे, उनमें गर्मी और प्रकाश था। एक गर्मी गंगा की धमनियों में भी थी, एक प्रकाश उसके हृदय में भी था- प्यार की गर्मी, प्रेम का प्रकाश। कितनी मधुर थी यह जलन... मोहन की स्मृति के भावसागर में वह डूव गई। उसका मन गदगद हो उठा।

अचानक एक धमाके के साथ आंगन का किवाड़ खुला और गांव के एक लड़के ने अकस्मात् चट्टान फट जाने से हुई दुर्घटना की सूचना दी। गंगा का हृदय धक से रह गया। वह क्षण-भर एकटक उस लड़के को देखती रही और फिर जोर से 'बापू-बापू' कहती हुई चूल्हे के पास से उठी और भागती हुई बाहर निकल गई। उसके बाहर जाते ही चूल्हे पर रखी हंडिया में उबाल आया, भात उबलकर नीचे गिर गया और जलती हुई लकड़ियों में से उठते हुए शोले जो कुछ क्षण पूर्व गंगा के मन को गुदगुदा रहे थे एक ही झटके में बुझ गए... और शेष रह गया धुवां।

दुर्घटना वाले स्थान पर मजदूरों का एक जमघट लग गया। उन्होंने पत्थर हटाकर बंसी को बाहर निकाला और एक ओर घास में लिटा दिया। वह लहू में लथपथ बेसुध पड़ा था और मजदूर आपस में बातें कर रहे थे। गंगा के यहां पहुंचने तक एम्बुलेंस भी आ पहुंची थी। बापू की यह दशा देखकर उसकी थरथराती हुई चीख वातावरण में गूंज कर रह गई। वह दोनों बांहें फैलाए बापू-बापू पुकारती उसकी ओर बढ़ी किन्तु लोगों ने उसे वहीं थाम लिया और घायल बंसी को उठाकर मोटर में डाल दिया। गंगा मजदूरों के घेरे में फड़फड़ाती उन पत्थरों को देखती रह गई। जिन पर उसके बापू का ताजा लहू लगा था। इस दुर्घटना के पीछे जिस दैत्य का हाथ था वह अपनी कोठी में बैठा मन की कंपकंपाहट दवाने के लिए अपने कंठ में शराब उड़ेले जा रहा था। शराब उसके भय को छिपा रही थी पर उसके मस्तिष्क से यह विचार दूर न हो रहा था कि मंगलू ने चाँदी के चंद टुकड़ों के लिए गरीब बंसी का खून कर दिया।

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