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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

जब यह दवाई लेकर शहर से लौटी तो अंधेरा घिर आया था। आकाश पर छाई घटा ने वातावरण को कुछ डरावना-सा बना दिया था। दूर तक सड़क पर कोई न था। बढ़ते हुए अंधेरे को देखकर उसके मन में भय ने स्थान बना लिया, उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई। इस उजाड़ मार्ग से अधिक भय तो उसे बापू का लग रहा था। वह उसके लिए चिन्तित होगा। देर भी तो बहुत हो गई है। वह मन ही मन बापू के क्रोध को कम करने के उपाय सोचने लगी। दवाई के अतिरिक्त वह उसके लिए तम्बाकू और कुछ अन्य वस्तुएं भी ले आई थी। वह सोचने लगी कि जाते ही वह बापू के गले में बाहें डाल देगी और बापू सस्नेह उससे कहेंगे, ''गंगा, कितनी बार कहा है कि देर से न आया कर। जब तक तू घर नहीं आती, मेरा मन न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबा रहता है...''

एकाएक मोटर के हार्न ने उसकी विचारधारा भंग कर दी। वह डर कर सड़क के किनारे हो गई। उसके बहुत पास से जीपगाड़ी गुजरी और कुछ दूर जाकर रुक गई। गंगा ने ध्यान से देखा। वह जीप प्रताप की थी।

गंगा ने चाहा कि वह चुपचाप आंख बचाकर आगे बढ़ जाये, क्योंकि वह उसका सामना न करना चाहती थी; किन्तु प्रताप ने उसका नाम लेकर पुकारा और मुस्कराकर बोला--

''इतनी देर गये कहां से आ रही हो?''

''शहर से...'' सहमी हुई गंगा ने उत्तर दिया।

''शहर क्यों गई थी?''

''बापू बीमार हैं.. दवा लाने गई थी...''

''इतनी दूर अकेले जाने की क्या आवश्यकता थी? हमें कहलवा दिया होता... किसी से मंगवा देते'' प्रताप के स्वर में सहानुभूति थी। गंगा मौन रही, परन्तु उसकी इस दया को उसने आंखों ही आंखों में तोलने का एक विफल प्रयत्न किया। प्रताप मुस्कराकर झट बोला-

''फिर कभी आवश्यकता हो तो संकोच न करना.... इस सड़क पर इस समय अकेले जाना खतरे से खाली नहीं... आओ तुम्हें गांव तक पहुंचा दूं।''

''नहीं मालिक।''

''इसमें आपत्ति क्या है? शीघ्र ही घर पहुंच जाओगी! बंसी बिचारा चिन्ता कर रहा होगा।''

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