ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
'यह लोग कह रहे थे कि आपने कलुआ को इसलिए काम पर रख लिया है कि वह कम्मो का भाई था।'' बंसी ने बिना झिझक कहा।
''बंसी...'' प्रताप चिल्लाया। बंसी के मुंह से कम्मो का नाम सुनकर वह एकाएक कांप उठा। उसे यों लगा मानो किसी ने उसकी खोपड़ी पर हथौड़ा दे मारा हो। उसने भयभीत दृष्टि से बंसी की ओर देखा। आज उसी के नौकर ने उसकी निर्बलता पर वार किया था। मानसिक दुविधा में वह कमरे में इधर-उधर चक्कर लगाने लगा। फिर कुछ सोचकर बोला, ''शामू और सुखिया को वापस काम पर ले लो।''
यह कहकर वह झट कमरे से बाहर निकल गया।
''क्या हुआ मालिक?'' मंगलू ने पिछवाडे से भागकर जीप के पास आते पूछा।
''मंगलू! तुम्हें यहां रहना चाहिए। ऐसा लगता है जैसे किसी ने इन लोगों को भड़का दिया है।''
मँगलू ने पैनी दृष्टि से मालिक की ओर देखा और बोला- ''कहीं इस कानून की धमकी में अपने बंसी का हाथ तो नहीं?''
''पर वह ऐसा क्यों करने लगा?''
''उसकी गरीबी पर तरस खाकर हमने उसकी बेटी जो मांग ली थी...और फिर रात कम्मो और आप...''
प्रताप ने उसे बात पूरी करने का अवसर न दिया और झट गाड़ी स्टार्ट कर दी। उसके मन में मंगलू की बात बैठ गई थी। मजदूरों की यह हड़ताल उसे बंसी की ही चाल दिखाई देने लगी। वह सोचने लगा वास्तव में उसने उससे बदला लेना चाहा है।
रात को दफ्तर की तालियाँ पहुँचाने के लिए बंसी जब प्रताप के बंगले में पहुँचा तो प्रताप ने उसे रोकते हुए पूछा-
''बंसी, क्या यह सच है कि तुम चौबे का काम देखते हो?''
''हाँ मालिक! सप्ताह में एक-दो बार...उसका ऋण चुकाना है... सोचता हूँ इसी प्रकार पूरा हो जाये तो बोझ कुछ हल्का हो।''
''हूं...तभी तो सोचता हूं, आये दिन यह हिसाब-किताब में गड़बड़ क्यों रहने लगी...?''
''कैसी गड़बड़ सरकार?''
''यह कृतघ्नता है। पगार मुझसे लेते हो और काम दूसरों का करते हो...''
''किन्तु उसका काम तो रात को करता हूं... यहां से छुट्टी के बाद...'' बंसी ने नम्रता से कहा।
''समय कोई भी हो पर ध्यान तो बंट जाता है... यहां काम ठीक नहीं हो पा रहा। यह तो ठीक बात नहीं।''
''आप कहें तो मैं उसे इन्कार कर दूं।'' बंसी ने हाथ जोडे।
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