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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''नहीं...उसका मन क्यों तोड़ते हो...और फिर ऋण भी तो चुकाना है तुम्हें... अच्छा तो यही है कि तुम इस नौकरी से त्याग पत्र दे दो...अब तुम से मेरा काम नहीं हो पाता...'' प्रताप ने कठोर दृष्टि से बंसी को देखा।

''मालिक!''

''हां बंसी। बुढ़ापे से तुम सठिया गये हो... तुम्हारी बुद्धि अब काम नहीं करती... दो-एक भूले हों तो मैं सहन भी कर लूँ... पर यह रोज-रोज की भूलें...नहीं....नहीं...मुझे यह विस्वास न था कि तुम अपने मालिक की आंखों में यूं धूल झोंकोगे।''

''लगता है मालिक! दुश्मनों ने आपके कान भरे हैं मेरे विरुद्ध...''

''तुम अब यहां काम नहीं करोगे....''

''इतनी छोटी भूल का इतना कठोर दण्ड मालिक।'' बंसी ने वेदना-भरी दृष्टि से मालिक को देखा।

''यह छोटी-छोटी भूलें ही मिलकर बारूद बन जाती हैं...बुद्धिमान वही है जो आने वाली कठिनाई का पहले ही अनुमान लगा ले और उन कंकरों को हटा डाले जो उसके मार्ग को दुर्गम बना रहे हैं।''

''दया कीजिए सरकार! मेरे छोटे-छोटे बच्चे दाने-पानी से लाचार हो जायेंगे...'' बंसी गिड़गिड़ाकर प्रताप के पाँव पर गिर पड़ा। वह विनती करते हुए फिर बोला, ''ऐसा अन्याय न कीजिये हजूर... यदि कोई भूल हुई भी है मुझसे तो क्षमा कर दीजिए... आगे ऐसा न होगा...अपने बच्चों की सौगन्ध खाकर कहता हूं।''

''मुझे तुम पर तनिक भी विश्वास नहीं रहा...'' प्रताप अपनी बात पर अड़ा रहा।

बंसी कुछ देर तक सिर झुकाये सोचता रहा और फिर एकाएक वोला ''मालिक! मैंने वर्षो तक आपका नमक खाया है... मुझे अब विवश न करें कि अपने पेट के लिए कोई उद्दण्डता कर बैठूं!''

''क्या मेरी हत्या करोगे...''

''नहीं मालिक! मैं ऐसा महान् अपराध नहीं करूंगा.. मुझे अपना अधिकार चाहिए...''

''अधिकार? कैसा अधिकार?''

''न्याय मेरी ओर है... आप मुझे नहीं निकाल सकते इसलिए कि मैं आपका सबसे पुराना सेवक हूं...''

''बंसी...'' न्याय का शब्द सुनकर वह कड़का, ''अब तुम भी मुझे न्याय की धमकी देने लगे हो!''

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