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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

आठ

काम का भोंपू हुए आध घण्टे से अधिक बीत चुका था; किन्तु कोई भी मजदूर अपने काम पर न लगा था। वह एक ही रट लगाये जा रहे थे कि जब तक शामू और सुखिया को वापस काम पर नहीं बुलाया जाता, वे काम को हाथ नहीं लगायेंगे। वह उन्हें उनका अधिकार दिलाकर ही रहेंगे चाहे इसमें उन्हें कानून से ही टक्कर क्यों न लेनी पड़े। बंसी ने उन्हें लाख समझाने का प्रयत्न किया, किन्तु उनके मस्तिष्क में यह बात न समा पा रही थी।

जब प्रताप 'साईट' पर पहुँचा तो मजदूरों का व्यवहार देखकर क्रोध से आग-बबूला हो उठा। उसने कड़कते हुए उन्हें काम करने का आदेश दिया। मंगलू ने मालिक का आदेश दोहराया; किन्तु मजदूर अपनी मांग पर अड़े हुए थे।

''इन भूखों को कानून का पाठ किसने पढ़ाया?'' दफ्तर में प्रवेश करते ही क्रोधित स्वर में उसने बंसी को सम्बोधित किया।

''मैंने कुछ नहीं कहा सरकार! सवेरे आया तो यह सब हथियार गिराए बैठे थे...बहुत समझाया, किन्तु कोई नहीं माना।'' बंसी ने हाथ जोड़कर नम्रता से उत्तर दिया।

''तो अवश्य किसी ने भड़काया होगा।''

''हो सकता है हजूर।''

''तो सबको नोटिस दे दो।''

''एक विनती करूं मालिक।'' क्षण-भर रुककर वह बोला।

''कहो...''

''कानून हमको ऐसा करने की अनुमति नहीं देता। दूसरे इस समय इनसे बैर मोल लिया तो काम समय पर समाप्त न होगा।''

''कानून, कानून...क्या कानून इन्हीं के लिए रह गया है'' मुट्ठियों को क्रोध से भींचते हुए प्रताप बोला, ''क्या हमारी कोई आवाज ही नहीं? ''

''है सरकार, किन्तु एक सीमा तक...''

''तुम यह कहना चाहते हो, इनकी मांग ठीक है?'' प्रताप ने कहा।

''जी...'' बंसी के मुख पर एक विचित्र दृढ़ता थी।

''ओह...''

''मेरी मानिये...सुखिया और शामू को काम पर वापस ले लीजिये...यही बुद्धिमानी है।''

''नहीं, नहीं, नहीं...यह सम्भव नहीं।'' वह सटपटाकर चिल्लाया।

''सोच लीजिये मालिक! मैंने उनके मुंह से सुना है...'' बंसी कहते-कहते रुक गया।

''क्या सुना है?'' प्रताप ने चौंकते हुए पूछा।

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