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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''जा रहा हूं सरकार...'' बंसी ने अपने क्रोध को निर्धनता की दुर्बलता में दफ़ना दिया और जाने को मुड़ा। उसने अभी पग बढ़ाया ही था कि प्रताप की पुकार सुन वह रुक गया। वह धीरे से उसके समीप आया और धीमे स्वर में बोला- ''बंसी! यह बात बाहर न निकलने पाये।''

''मालिक, भरोसा रखें! आपकी बदनामी मेरी बदनामी है। आंखों ने अवश्य देखा है, पर विश्वास रखिये यह बात होंठों पर कभी न आएगी..'' बंसी ने अपनी दुर्बल और कांपती आवाज़ में उसे भरोसा दिया। फिर वह अपनी अशक्त टाँगों को घसीटते हुए अहाते के बाहर चला गया। अंधेरे वातावरण में कम्मो का वासनापूर्ण पाप अभी तक महक रहा था।

बंसी जब घर पहुंचा तो अंधेरा घना हो चुका था। गंगा के कमरे में दीया जल रहा था। वह धीरे-धीरे वहीं चला आया और चौखट पर रुककर गंगा को निहारने लगा, जो बच्चों को सुलाते हुए स्वयं भी सो चुकी थी। दीये के प्रकाश में वह पवित्रता की मूर्ति प्रतीत हो रही थी। मंजू और शरत दायें-बायें उससे चिपके हुए थे और गंगा दोनों को स्नेह से गले लगाये स्वयं ममत्व का रूप बनी थी। कुछ देर के लिए बंसी की आंखों से कम्मो की घृणामयी सूरत दूर हो गई।

आज से पहले उसने ध्यानपूर्वक अपनी जवान बेटी को कभी न देखा था। वह हू-ब-हू अपनी माता का रूप थी। उसे देखकर बंसी के मन में अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद ताज़ा हो उठी। उसकी आंखों में पूरा अतीत घूम गया। उसके ब्याह से लेकर पत्नी की मृत्यु, दुःख और सुख की धूप-छांव और अब? अब तो उसके सामने अन्धकार ही था। बच्चे बड़े होते जा रहे थे, गृहस्थी का बोझ बढ़ता जा रहा था। कौन था जिससे वह दुःख-सुख बांट सके। बंसी की आंखों में आंसू छलक आये और वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया।

अचानक गंगा की आंख खुल गई। बापू की बाट जोहते-जोहते वह सो गई थी। उसने साथ के कमरे में झांककर देखा। वहां अँधेरा था; किन्तु बापू के बिस्तर से बुड़बुड़ाने की आवाज़ आ रही थी। गंगा झट उठी और कोने में रखी लालटेन उठाकर बापू को देखने भीतर चली आई। बंसी पसीने में लथपथ जाने क्या कहे जा रहा था। गंगा ने लालटेन उठाकर उसे देखा और घबराकर पुकार उठी- ''बापू...''

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