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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

बंसी ने आंखें खोल दीं और विचित्र दृष्टि से पहले दीवारों की ओर और फिर गंगा को देखने लगा। फिर एकाएक उसने दोनों बाँहें फैलाकर स्नेह से उसे अपने निकट आने का संकेत किया। गंगा सहमी हुई बापू के पास आकर खड़ी हो गई। बंसी ने स्नेह में उसे छाती से लगा लिया और दुलार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगा।

''कब आये.. बापू?'' गंगा ने बापू की चारपाई पर बैठते हुए पूछा।

''देर हुई।''

''मैं कहां थी?''

''सो रही थी तू... मैंने जगाना ठीक न समझा।''

''न जाने कब आंख लग गई - मैं तो कब से तुम्हारी राह देख रही थी - खाना परोस दूं?''

''नहीं - आज भूख नहीं बेटी।''

''क्यों बापू?''

''न जाने क्यों... जी ठीक नहीं कुछ।''

''ताप तो नहीं? नींद में बोल रहे थे और फिर यह पसीना।''

गंगा ने चुनरी के छोर से बापू के माथे से पसीना पोंछा और कलाई थामकर नाड़ी देखने लगी।

''नहीं, ताप नहीं.. एक सपना देख रहा था।''

''कैसा सपना?''

''एक बडा भयानक सपना....'' बंसी कहते-कहते गम्भीर हो गया।

''सपने में किसी की मृत्यु देखी क्या?''

''हां बेटी! ''

''तब तो अच्छा सपना हुआ...कहते हैं सपने में जिसकी अर्थी देखो उसकी आयु बढ़ती है। कौन था वह?''

''कम्मो''

''कम्मो?'' गंगा ने आश्चर्य से दोहराया।

''हाँ, कम्मो-एक गरीब मजदूरन जिसे चांदी के कुछ टुकडों के लिए एक अमीर राक्षस ने खरीद लिया...'' बंसी ने सामने दीवार की ओर ताकते हुए कहा।

''तो उसने अवश्य प्राण दे दिये होंगे...''

''काश ऐसा होता...''

''तो क्या..?'' गंगा ने पूछना चाहा।

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