ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा झटके से अलग हो गई। क्षण-भर के लिए आंखों में सिमट आया उल्लास लोप हो गया। चेहरे पर उदासी छा गई और वह बापू के बिस्तर की सलवटें दूर करने लगी। रूपा उसका हाथ थाम कर वहीं बिस्तर पर वैठ गई और उसकी आंखों में झांकते हुए बोली- ''मोहन भैया की नौकरी पक्की हो गई है। कल वह शहर जा रहे हैं...''
''तो मैं क्या करूँ?''
''तुम यह जानकर उदास हो न..?''
''मैं, क्यों उदास होने लगी, तुम्हारे भैया यहां रहें या शहर जायें, नौकरी करें या बेकार रहें. इससे मुझे क्या...'' पर यह कहते-कहते उसकी आंखें छलछला आईं और वह रूपा के गले से लग गई। रूपा ने उसे अलग किया और उसकी आंखों में झलकते हुए मोती देखकर बोली, ''हां गंगा। यही कहने आई थी तुम्हें। मोहन भैया नदी-किनारे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जाने से पहले वह तुम्हें मिलना चाहते हैं...।''
गंगा, रूपा को घर छोड़ नदी-किनारे चली गई। इधर रूपा अवसर पाकर सीधी मोहन के पास पहुंची और उसके कान में धीरे से बोली-
''भैया! नदी-किनारे गंगा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। वह स्वयं तुमसे कुछ कहना चाहती है।''
मोहन पहले तो हिचकिचाया, किन्तु जब रूपा ने उसके सामने गंगा की व्याकुलता का वर्णन किया, तो वह उसी समय उठकर नदी की ओर हो लिया।
गंगा चुपचाप नदी-किनारे बैठी मौन तरंगों का दृश्य देख रही थी। यहां आये उसे बहुत अधिक समय न हुआ था, पर यह कुछ क्षण भी उसे बहुत प्रतीत हो रहे थे। पानी की भरी मटकी पास रखी थी और वह रह-रह कर रूपा को कोस रही थी जिसने उसे अकारण ही यहां भेज दिया। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक मार्ग को नापती; किन्तु मोहन कहीं दिखाई नहीं देता था। उसे यह विचार आया कि उठकर चल दे, फिर वह कुछ सोचकर बैठ गई और उसने निश्चय किया कि पानी का रेला जब दस बार किनारे को छू लेगा तो वह चल देगी।
एक.. दो.. तीन। लहरें दस बार किनारे को छूकर लौट गईं। किनारे की रेत लहरों को चूम-चूम कर भी प्यासी रह गई। ठीक गंगा के समान जो आशा की प्रत्येक किरण के बाद भी अतृप्त ही रह जाती। वह क्रोध में आकर उठ खड़ी हुई और मटकी उठाकर जाने लगी।
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