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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

छह

मोहन शहर जा रहा था। उसे वहां किसी चीनी मिल में नौकरी मिल गई थी। इस सूचना से सभी खुश थे; किन्तु गंगा उदास थी। उसका मोहन दूर चला जायेगा, वह उसे देख भी न सकेगी। उसके बिना वह कैसे रहेगी? इससे ही उसका हृदय बिलख रहा था।

आज सबेरे से उसने काम को हाथ न लगाया था। घर में हर चीज़ बिखरी पड़ी थी। रूपा ने प्रवेश करते ही सरसरी दृष्टि से चारों ओर देखा। सखी के मन की दशा समझते हुए उसे तनिक भी देरी न लगी। इसका कारण भी वह जानती थी। फिर भी उसे छेड़ने के लिए बनते हुए बोली-

''जानती हो, आज मैं बहुत खुश हूं...''

''क्यों? क्या ससुराल वालों ने 'हां' कर दी...'' गंगा ने अपनी उदासी को छिपाने का प्रयास करते हुए कहा।

''हां... पर तुम्हारे ससुराल वालों ने...'' उसने चंचलता से मुस्कराते हुए उत्तर दिया।

''हट... क्या बकती है...''

''यही, कि तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुआ चाहती है... मोहन भैया ने काकी से सब कह दिया...''

''क्या कह दिया है?'' गंगा ने बनते हुए पूछा। उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई थी।

''यही कि वह तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी बनाना चाहते हैं...''

''चल हट... जो मुंह में आया बक दिया...'' गंगा ने वनते हुए तुनक कर मुंह मोड़ लिया और फर्श पर बिखरी हुई वस्तुओं को समेटने लगी। इस बनावटी रोष में उसके पुलकित हदय की गुदगुदाहट और भी उजागर हो उठी। शीघ्र ही उसने सब बिखरी हुई चीजें अपने स्थान पर टिका दीं।

''अच्छा भई, तेरी इच्छा... हम नहीं बकते...'' रूपा ने द्वार की ओर पलटते हुए कहा। फिर मुड़कर उसकी ओर देखते हुई बोली-- ''अरी! इतना तो पूछ लिया होता कि काकी ने क्या उत्तर दिया।''

''क्या बोली वह?'' दांतों में उंगली दबाते हुए गंगा ने पूछा। रूपा उसके पास आ खड़ी हुई और दोनों हथेलियों में उसके कपोलों को प्यार से लेते हुए बोली-

''मेरी बन्नो! काकी बोलीं, पहले शहर में जाकर चार पैसे जोड़ ले, फिर हमारी बिटिया से ब्याह की बात करना।''

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