ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
अभी वह एक-दो पग ही बढ़ी थी कि नदी में एक भारी पत्थर आ गिरा, उसके धमाके से गंगा चौंककर वहीं स्थिर हो गई। उसने झट पलट कर देखा, कुछ दूर पर मोहन खड़ा मुस्करा रहा सा। गंगा ने मुंह फेर लिया।
''हमसे रूठ गईं क्या?'' मोहन ने पास आते हुए पूछा।
''और क्या... किसी को बुलाना और स्वयं देर से आना, यह कहां की रीति है...?''
''देर से,'' वह बड़बड़ाया, ''मैं तो तुम्हारा संदेश मिलते ही चला आया।''
''कैसा संदेश?'' गंगा ने चकित होकर पूछा।
''तुमने मुझे नदी-किनारे मिलने के लिए बुलाया था न।''
''मैंने...?''
''हूं... रूपा ने तो मुझसे यही कहा था।''
''रूपा ने? पर उसने तो मुझसे कहा था...''
''क्या कहा था उसने?''
''यही कि तुम मुझसे मिलना चाहते हो और यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो।''
गंगा की घबराहट को देख वह खिलखिला कर हंसते हुए बोला- ''तब उसने हम दोनों को बनाया है।''
''मैंने भी उसे इस बात का मजा न चखाया, तो गंगा नाम नहीं।'' यह कहकर वह चलने लगी।
''अरे... रे.... कहां चली...'' मोहन ने उसका हाथ थामकर उसे वहाँ बिठा लिया।
''इसमें उस बेचारी का क्या दोष? उसने तो भला ही किया जो दो व्याकुल हृदयों को मिला दिया।'' यह कहते हुए मोहन ने गंगा को अपनी ओर खींच लिया और उसकी आंखों की गहराई में झांकते हुए बोला, ''गंगा! कल मैं जा रहा हूं।''
''मैं जानती हूं।'' गंगा ने उसके वक्ष पर सिर रखते हुए कहा।
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