ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''नहीं, वंसी...नहीं...इस समय हम से कुछ नहीं होने का। क्या हमारा यह उपकार तुम पर कुछ कम है कि इस बड़ी अवस्था में भी हम तुम्हें पाल रहे हैं?'' और यह कहता हुआ प्रतापसिंह दफ्तर से शहर चला गया।
बंसी की आवाज कंठ में ही अटक कर रह गई। आज तीन महीनों के प्रयत्न के माद वह मालिक से यह शब्द कह पाया था। उसे क्या पता था कि उसका प्रश्न पानी के बुलबुले के समान उभरते ही टूट जायेगा।
मालिक की जीप जा चुकी थी। यह बुत बना खिड़की में से टूटते हुए पत्थरों को बिखरते देखता रहा। उसके मस्तिष्क पर धूल की परत-सी छा गई। टूटते-गिरते पत्थरों की आवाज, एक चलचित्र के रूप में अतीत का चित्रण, उसके मस्तिष्क पर अंकित करने लगी। बंसी को पता भी न चला कि कब से मंगलू उसके सामने खड़ा उसे देख रहा था। उसे सुध आई जब मंगलू ने ऊँचे स्वर में पुकारा। बंसी चौंक उठा और उस पर दृष्टि जमाए हुए बोला- ''आओ...मंगलू...''
''यह पागलों की भाँति खोए से उन पहाड़ियों की ओर क्या देख रहे हो?''
''अपने पचास वर्ष के जीवन का प्रतिबिम्ब।''
''इस बुढ़ापे में कविता करने लगे काका?''
''नहीं, मंगलू। यह कविता नहीं है। मैं सोच रहा था कि इस बारूद की भांति निर्धनता ने मेरी आयु को यूं ही टुकडे-टुकड़े करके बिखेर दिया है।'' आंखों में आये आंसुओं को छिपाते हुए बंसी बिखरी किताबों को समेटने लगा।
मंगलू की समझ में कुछ न आया। उसने सोचा कदाचित् बुढ़ापे ने बंसी की बुद्धि हर ली है। बंसी से लेकर स्वयं किताबें बांधने लगा। उसे ये किताबें रात को मालिक के घर पहुँचानी थीं।
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