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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

प्रतापसिंह ने हाथ में थामी हुई छड़ी से उसे बैठा रहने का संकेत किया और उसके समीप आकर मूंछों को संवारते हुए बोला- 'कहो, हिसाब बन गया बंसी?''

''जी...मालिक...'' बंसी के स्वर में कम्पन था, मानो वाद-विवाद से बचने के लिए उसने झूठ कहा हो।

प्रतापसिंह खिड़की से बाहर देखने लगा। उसके गम्भीर मुख पर हल्की-सी मुस्कान फूट पड़ी और उसका सिर गर्व से उठ गया। कुछ दूरी पर बारूद शिलाओं को तोड़-फोड रहा था। एक ही वर्ष में उसने ऊंचे और विशाल पर्वत को मिट्टी के ढेर में परिवर्तित कर दिया। यहां एक बांध बनना था। देश के भविष्य का निर्माण, भविष्य के सुनहरे स्वप्न की कड़ी। इससे देश को क्या लाभ होगा? इसका अनुमान तो प्रताप ने कभी न लगाया था, किन्तु इतना वह अवश्य जानता था कि बर्षा आरम्भ होने से पूर्व ही इस बांध के पूरा होने पर उसे पांच लाख का लाभ होना था.. पूरे पांच लाख का। वह दिन में कई बार इस लाभ को उंगलियों पर गिना करता था। इस समय भी दूर टूटती हुई चट्टानें-उसे पत्थर नहीं, सोने-चांदी के टुकड़े प्रतीत हो रही थीं।

''मालिक...'' बंसी के स्वर ने उनकी विचार-धारा को यूं भंग कर दिया, जैसे किसी ने बढ़ती हुई पतंग की डोरी को काट दिया हो। ''सुखिया और कलुआ का क्या होगा मालिक?'' बंसी ने डरते हुए सहमी दृष्टि से प्रतापसिंह को देखते हुए पूछा।

''दोनों की पगार बढ़ा दो-पांच-पांच...' प्रतापसिंह स्वर में अहंकार मिश्रित करते हुए बोला और फिर खिडकी से बाहर देखने लगा। फिर पलट कर एकाएक कड़े स्वर में पूछा- ''क्या है बंसी?''

बंसी अभी तक चुपचाप खड़ा था।

''सरकार, मेरी भी एक बिनती है।''

''क्या है?'' प्रतापसिंह ने अनजान बनते हूए पूछा।

''आपने इस माह याद दिलाने को कहा था...वेतन बढ़ाने के लिए''''

''उफ...बंसी। समय और स्थिति का ध्यान तो किया करो।

आजकल ठेकेदारी में इतनी बचत कहां है कि हर मास कारिन्दों की कठिनाइयां दूर करते रहें?''

''सरकार! बच्चों का प्रश्न न होता तो शायद...।''

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