ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
|
2 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
एक
दूर पहाड़ियों की ओट में सूर्यास्त हो रहा था। सांझ की बढ़ती हुई परछाईं में कहीं-कहीं डूबते सूरज की लाल और सुनहरी किरणें झलक रही थीं। चन्दन घाटी पर धुंधलके और लालिमा का एक मिश्रित जाल-सा बिछा था।
काले पत्थरों से बने एक कमरे में बैठा बंसी दिनभर के धन और ऋण के आंकड़ों में व्यस्त था। कभी-कभार दूर चट्टानों के टूटने की ध्वनि सुनाई दे जाती थी। बारूद के फटने से लुढ़कते हुए पत्थर चूर-चूर होकर पर्वतों के आंचल में बिखर जाते और बंसी को ऐसा लगता मानो उसके जीवन की आकांक्षाएं इन्हीं पत्थरों के समान बिखर गई हों और वह इन्हें फिर से समेटने की शक्ति खो बैठा हो। वह इन धमाकों का अभ्यस्त हो चुका था। बुढ़ापा और निर्धनता उसे दीमक के समान चाट कर खोखला कर रहे थे। आज निरन्तर पांच वर्षों से वह जान तोड़ कर अपने स्वामी प्रतापसिंह की सेवा कर रहा था, जिसके बदले में उन्नति पाकर वह एक साधारण मजदूर से अस्सी रुपये मासिक का मुंशी बन चुका था। स्वामी उसके काम से सन्तुष्ट थे।
बार-बार जोड़ने पर भी उसके हिसाब में ग्यारह रुपये चालीस पैसे का अन्तर आ रहा था। बहुत प्रयास के बाद भी उसका हिसाब ठीक न बैठ रहा था, यह बात उसके मस्तिष्क को जकड़े हुए थी।
एकाएक जीप की आवाज ने उसे चौंका दिया। न जाने इस गाडी की कर्कश ध्वनि उसके कानों को बींधती, शीघ्र ही उस तक कैसे पहुँच आती थी। उसने खाते पर से दृष्टि हटा कर प्रवेश-द्वार की ओर देखा, जहां उसके स्वामी प्रतापसिंह खड़े थे।
बंसी घबराहट को समेटता हुआ कुर्सी छोड़कर स्वागत के लिये खड़ा हो गया।
|