लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ

काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

दो

दूसरे दिन बंसी काका हफ्तावारी बांटने के लिये तैयार बैठा था। उसके सामने मजदूरों की लम्बी पंक्ति लगी थी। लक्ष्मी मिलने के विचार से ही उनका रक्त-प्रवाह बढ़ गया था, उनके कुम्हलाये हुए चेहरों पर लालिमा-सी उभर आई थी। उत्साह भरे मन अधीर हुए बंसी को देख रहे थे और वह घबराहट से अपनी जेबों और पास रखी सब चीजों को टटोले जा रहा था।

''क्या बात है बंसी काका?'' सामने खड़े एक मजदूर ने उसकी बौखलाहट का अनुमान लगाते हुए पूछा।

''न जाने ऐनक कहां भूल आया हूँ।''

''तो क्या हुआ काका। नोट तो उंगलियों से गिनते हैं, आंखों से नहीं...हाथ तो नहीं भूल आये।''

इस पर एक जोरदार ठहाका लगा और बंसी लज्जित होकर फिर चीजों को उलटने-पलटने लगा।

तभी उसके सामने रखे रजिस्टर पर एक कोमल हाथ वढ़ा और ऐनक रखकर लौट गया। बंसी ने दृष्टि उठाई। गंगा-उसकी बेटी थी। वह हड़बड़ा कर बोला-

''तू यहां क्या कर रही है?''

''घर पर ऐनक जो छोड़ आये थे बापू।'' गंगा ने भोलेपन से उत्तर दिया और फिर क्षण-भर रुककर बापू के माथे पर आये हुए बल देखते बोली, ''सोचा, हफ्तावारी बंटनी है, कहीं कोई भूल न हो जाये।''

''अच्छा-अच्छा...चल भाग वहां से...'' बंसी ने झुंझला कर कहा और दृष्टि घुमाकर आस-पास खड़े मजदूरों की वासनामयी भूखी दृष्टि को देखा। गंगा का इस समय यहां आना उसे अच्छा न लगा। गंगा बापू के आशय को भांप गई और हड़बड़ाकर पीछे हटते हुए मंगलू से टकरा गई जो बंसी के पास बैठा गन्ना चूस रहा था। गंगा इस हड़वड़ाहट में बिना मुड़ के देखे, तेज़ी से भाग गई। वातावरण एक बार फिर मज़दूरों की हँसी से, गूंज उठा। यह हंसी बंसी के कानों में पिघले हुए सीसे के समान उतर गई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai