लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ

काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''अरे! वे तो सदा से दयालु हैं, केवल तुम ही उनकी दया को न देख सके...''

''नहीं, मंगलू! इतना परिवर्तन तो मैंने पहले कभी नहीं देखा...''

''इस परिवर्तन की बात तो कुछ और है काका... जबसे मालकिन ने उनसे सौगन्ध ली है। भगवान की सौगन्ध, उनकी आयु दस-बारह साल छोटी हो गई है।''

''कैसी सौगन्ध?''

''सरकार के ब्याह की... कल मेरे होते ही बोलीं? मेरे लिए अपना जीवन क्यों खराब करते हो, कोई अच्छा घर देख कर ब्याह क्यों नहीं कर लेते...''

मालिक के ब्याह की बात सुनकर बंसी को एक धक्का-सा लगा, पर फिर वह अपने-आप बड़बड़ाने लगा-

''पैसा है... आयु है... उस पर सन्तान की चाह भी। यदि मालकिन की इच्छा भी है तो इसमें बुरा भी क्या है?'' बंसी ने मंगलू को चिलम लौटा दी और फिर से काम पर लग गया। मंगलू इस बीच तम्बाकू के कश खींचता रहा और कुछ समय पश्चात् फिर बोला- ''गंगा के लिए कोई लड़का देखा क्या?''

''नहीं तो.. क्यों? ''

''एक वर मेरी दृष्टि में भी है. यदि मान जाओ तो गंगा जीवन भर राज करेगी... ''

''मंगलू! तू ऐसा भी सोच सकता है क्या? ''

''क्यों बंसी! जबान भले ही काली हो... मन तो काला नहीं..''

''कौन है वह? '

''कह दूं? ''

''हां-हाँ.. इसमें भेद-भाव कैसा?''

मंगलू ने चिलम का एक लम्बा कश खींचा और फिर दांए-बांए देखते हुए बंसी के समीप होते हुए दबे स्वर में बोला- ''अपने सरकार... कहो तो बात छेडूं...''

''मंगलू...'' एक चीख के साथ बंसी कांप कर रह गया। उसकी आंखों में लहू उतर आया। उसे यूं लगा मानो मंगलू ने उसके थप्पड़ दे मारा हो। मंगलू ने कुछ और कहना चाहा; किन्तु बंसी ने हाथ के संकेत से उसे तुरन्त बाहर निकल जाने को कह दिया। वह भले ही निर्धन हो, पर इतना निर्लज्ज, इतना गिरा हुआ नहीं कि बेटी का सौदा करे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai