ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''लगन की बात है...तभी तो तू राधा बनी इस मधुर तान पर इतना सुन्दर नाचती रही।''
गंगा सोचने लगी, वास्तव में वह मोहन की बांसुरी की तान पर सुध-बुध बिसार बैठी थी। यह नृत्य 'लगन' ही का परिणाम था। उसका हदय किसी विचार से रोमांचित हो उठा। तारामती ने पास रखी फलों की तश्तरी से एक संतरा उठा कर छीलना चाहा। गंगा ने झट उसके हाथ से संतरा ले लिया और स्वयं छील कर उसे देने लगी।
इतने में प्रताप ने भीतर प्रवेश किया। गंगा को वहां देख वह चौंक पड़ा और अपने काले होंठों पर जीभ फेरता उसके निकट आ खड़ा हुआ। गंगा ने कनखियों से उसे देखा और तुरन्त छिलके उठा कर बाहर चली गई। प्रताप उसे घूरे ही जा रहा था। उसके जाने के पश्चात् तारा के सामने आया और प्लेट से एक सेव उठाते हुए बोला- ''हां, तारा। तुम कह रही थीं कि तुम्हारी देखभाल के लिए शहर से कोई नर्स या समझदार औरत बुला ली जाये...''
''हां...तो...''
''अपने काम के लिए यह बंसी की लड़की कैसी रहेगी?''
''लड़की तो भली है; किन्तु बंसी कहां मानेगा।''
''बंसी ने आज तक कभी तुम्हारी बात टाली है, जो यह न मानेगा?
''घर में चार पैसे आते क्या बुरे लगते हैं किसी को? इधर तुम्हारा मन बहला रहेगा, उधर उसके घर में लाभ होगा'' - प्रताप जब तारा से यह कह रहा था उसने अनुभव किया कि बाहर किवाड़ की ओट से गंगा यह सब सुन रही है। गंगा ज्यूं-ज्यूं प्रताप का सामना-करने से घबराती, उतना ही वह और खिंचता चला जाता। फिर भी इस समय वह अपनी पत्नी और गंगा के मध्य दीवार न बनना चाहता था। इसलिए चुपके से बाहर चला गया।
इधर जब बंसी अपने काम में व्यस्त था, तो उसे अकेले देख मंगलू उसके निकट आ बैठा। अपनी चिलम सुलगाकर उसने एक कश खींचा और चिलम बंसी की ओर बढा दी। बंसी काम छोड़कर चिलम पीने लगा और पीते-पीते बोला- ''मंगलू एक बात तो बता...''
''हूं... ''
''यह मालिक हम पर एकाएक दयालु कैसे हो गये?''
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