ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''कह दो ना...किसी की प्रतीक्षा कर रही थी...किसकी बाट जोह रही थी?'' मोहन ने हाथ दबाते हुए कहा।
''एक तो देरी से आये, दूसरे परीक्षा ले रहे हो। अब चलिये देर हो रही है...''
''मैं तो कब से इस भीड़ में भटक रहा हूँ...''
''क्यों?'' गंगा ने आंखें मिलाते हुए पूछा।
''तुम्हें पाने के लिये...'' मोहन ने कहा।
गंगा ने अपना हाथ छुड़ाया और मन्दिर की ओर भागी।
आज जिस निपुणता से वह बांसुरी को धुन पर नाची, उसे देख कर सब दर्शक वाह-वाह कर उठे। गंगा को स्वयं आश्चर्य था कि उसमें अचानक यह कुशलता कहां से आ गई। प्रताप और मंगलू की तो - उसे राधा के सुन्दर रूप में देखकर - आंखें फट गईं। उनकी वासना और तीव्र हो उठी। तारामती भी विभोर हुए बिना न रह सकी। इससे मोहक राधा-कृष्ण-नृत्य उसने पहले नहीं देखा था।
मुरली की तान और प्रेम-रस की इस थिरक में वह कुछ समय के लिए तो अपनी शारीरिक पीड़ा को भी भूल बैठी।
दूसरे दिन तारामती के निमन्त्रण पर वह उनके बँगले पर गई।
तारामती ने उसके रात के नृत्य की प्रशंसा करते हुए पूछा-
''कृष्ण का अभिनय कौन कर रहा था?''
''मेरी सखी रूपा...''
''बांसुरी खूब बजाती है...''
''वह तो मोहन बजा रहा था,'' गंगा झट बोली, किन्तु झेंप गई मानो यह कहने में उसने भूल कर दी हो।
''कौन मोहन...'' तारामती ने उत्सुकता से पूछा।
''मोहन, मोहन...'' गंगा बुड़बुड़ाई।
''लाखों नाम हैं कन्हैया के...मोहन कहो, मनमोहन कहो...'' तारामती ने उसे हिचकिचाते देखकर स्वयं उसकी वात पूरी कर दी।
''हां, मालकिन! मुझे तो ऐसा लग रहा था मानो स्वयं मुरली-मनोहर धरती पर आकर तान छेड़ रहे हों...'' गंगा ने तारामती की बात का सहारा लेते हुए उत्तर दिया।
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