ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
मंगलू तो बात कह कर चला गया था; बंसी के मस्तिष्क में तूफान-सा उठ गया। उसकी आंखों के सम्मुख प्रताप का चेहरा फिर गया। क्या उसी ने मंगलू को उसका मन टोहने के लिए यह प्रस्ताव देकर यहां भेजा था? यह उसकी आये दिन की कृपा, एकाएक उसकी वेतन-वृद्धि, उसके आराम की चिन्ता और उसके लिए फल और मिठाइयां...यह सब उपकार किसलिए? इसके पीछे उसके लिए तो कोई सहानूभूति नहीं छिपी थी.. इस कृपादृष्टि का केन्द्र थी गंगा... उसकी युवा बेटी। उसकी विवशता व निर्धनता का उपहास उड़ाया जा रहा है। मालिक के रूप में प्रताप एक शैतान ही था... एक राक्षस। उसके छोटे-छोटे उपकार विष-भरी सुइयां बनकर उसके हृदय में चुभने लगे, जिनका विष धीरे-धीरे उसकी धमनियों में फैलता जा रहा था। क्रोध से बंसी के नथुने फड़कने लगे। उसने खाते को बन्द कर दिया और क्रोध को शान्त करने के लिए कमरे से बाहर निकल आया।
नीचे घाटी में काम तेजी से चल रहा था। गरीब मजदूर लहू-पसीना एक करके मालिक की भलाई के लिए समय से लड़ रहे थे। उन्हें प्रत्येक दशा में यह बांध वर्षा से पहले पूरा करना था, नहीं तो ठेकेदार की लाखों रुपयों की हानि हो जायेगी। बंसी को लगा जैसे इन मजदूरों और इन काली चट्टानों में तनिक भी अन्तर न था। निरन्तर शताब्दियों की दुर्दशा ने उन्हें भी पत्थर बना दिया था। उन की आशाएँ-आकांक्षाएँ नष्ट हो चुकी थीं। परिश्रम से उनकी हड्डियां लोहे के समान बन चुकी थीं; किन्तु शरीर खोखले थे। आत्मा निरादर और विवशता से मर चुकी थी।
रात को जब बंसी घर लौटा तो गंगा कमरे में बिखरी चीजों को समेट रही थी। उसके होंठों पर धीमी गुनगुनाहट नाच रही थी। बंसी क्षण-भर के लिए द्वार पर रुक कर सोच में खो गया। एक ओर अल्हड़ जवानी गुनगुना रही थी और दूसरी ओर विवश बुढ़ापा रो रहा था। बेटी का यौवन-उल्लास देख कर उसे प्रसन्नता न हुई। उसका हृदय एक अज्ञात भय से कांपने लगा। उसका मन चाहा कि वह झट बढ़कर उसके होंठों पर अपना हाथ रखकर उसकी गुनगुनाहट को बन्द कर दे। उसकी मन्द मुस्कान को रोक दे। आंखों की चमक को मिटा दे और उसके कोमल कपोलों पर छाई लालिमा को फीका कर दे.. उसे कुरूप बना दे.. किन्तु उसे कुछ भी करने का साहस न हुआ और यह चुपचाप द्वार के पास रखी कुर्सी पर थका-हारा-सा बैठ गया।
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