ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''चल हट...'' मोहन ने रूपा की चुटिया खींची और दोनों खिलखिला कर हंस पड़े। मोहन के दिल की धड़कन उससे कह रही थी कि चोरी पकड़ी गई।
दूसरे दिन सबेरे ही ठेकेदार साहब के बंगले में बंधा कुतेता भौंकने लगा। एक पतले से स्वर ने तारामती का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
''कौन?'' पहिये वाली कुर्सी बढ़ाते हुए उसने गर्दन उठाई।
गंगा सहमी हुई कमरे के भीतर आई और अभिवादन करते हुए बोली, ''मैं...हूं गंगा...''
''कौन गंगा?''
''बंसी की बेटी...'' गंगा ने उत्तर दिया और उसने पहिए वाली कुर्सी को देखकर समझ लिया कि यही ठेकेदार की पत्नी थीं जो चलने-फिरने से विवश थीं।
''अपने बंसी की बेटी?'' तारामती के गंभीर सुख पर मुस्कान खिल आई, ''कितनी सुन्दर है तू! बंसी संग लाया होगा?''
''नहीं, बापू को ताप चढ़ आया है, यही कहने यहां आईं थी..''
''बुखार कैसे चढ़ गया?''
''रात बरखा में भीग गये। सवेरे तेज ज्वर था। काम पर जाने लगे तो मैंने रोक दिया। बस यही कहने आई थी कि छुट्टी चाहिए मालकिन!'' गंगा एक ही सांस में सबकुछ कह गई।
तारामती ने स्नेहपूर्वक उसे निकट बुलाया और सिर पर हाथ फेरते हुए बोली-- ''मैं कह दूंगी उनसे। जब तक बुखार न उतर जाये, बंसी को काम पर आने की कोई आवश्यकता नहीं।''
गंगा ने प्रणाम किया और फिर कभी आने का बचन देकर बाहर चली गई। गैलरी पार करके ज्यूं ही उसने मुख्य द्वार को लांघा वह ठिठक कर रह गई। सामने से आते हुए प्रतापसिंह से वह टकरा गई। हड़बड़ाहट में घबरा कर उसने मालिक को प्रणाम किया और तीव्र गति से लान की ओर बढ़ी। प्रताप वहीं खड़ा देर तक उसके उठते यौवन को तृष्णापूर्ण दृष्टि से देखता रहा। इतने में मँगलू सामने से आया और अनायास कह उठा ''गंगा... यहां?''
''गंगा।'' प्रताप ने यही शब्द दोहराया और फिर मंगलू को गहरी दृष्टि से देखते हुए पूछा।
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