ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''गंगा!'' कड़कते हुए बापू ने उसे पुकारा।
गंगा वहीं थम गई और अपराधिन-सी, दृष्टि झुकाये बापू के निकट आई।
''कहां गई थी?''
'बापू... मंदिर...'' उसने कम्पित स्वर में उत्तर दिया। फिर हड़बड़ाकर कर बोली, ''मंगल का उपवास था न आज, प्रसाद चढ़ाने गई थी।''
''कहां है प्रसाद?''
''प्रसाद...'' कुछ सोचकर उसने उत्तर दिया, ''बापू, वह तो बरसात में बह गया। छाजों पानी बरसा'' यह कहकर गंगा ने जोर से छींक मारी।
''अच्छा...अच्छा...जा... जल्दी से कपड़े बदल, कहीं ठंड से तुझे कुछ हो गया तो अच्छा न होगा...''
रूपा गंगा को साथ ले दूसरे कमरे में चली गई।
इधर मोहन जब कपड़े बदल रहा था तो काकी ने पूछा ''इतनी बरखा में कहां गये थे?''
''मन्दिर...''
''मन्दिर।'' काकी ने यह शब्द यूं दोहराया मानो कोई अनोखी बात सुनी हो।
''मंगल का उपवास था न... प्रसाद चढ़ाने गया था।''
''अच्छा किया। कहां है प्रसाद?''
इससे पूर्व कि वह कोई उत्तर देता, रूपा आ गई और झट से बोल उठी, ''वह तो बरखा में बह गया। रास्ते में छाजों पानी बरसा था... क्यों भैया?'' उसने मुस्कराते हुए अर्थपूर्ण दृष्टि से मोहन की ओर देखा।
''हां, काकी।'' झेंपते हुए मोहन ने रूपा की बात का समर्थन किया।
काकी उनकी बातों की गहराई न भांप सकी और मोहन का खाना परोसने रसोईघर में चली गई।
रूपा जो कुछ कहने के लिए बहुत ही व्याकुल थी, मोहन के समीप आते व चुटकी लेते बोली।
''बात भी सच है भैया। शक्कर का बताशा था, पानी में कब तक रहता। हाथ ही में घुल गया...''
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