ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा उसकी बात सुनकर कांप गई। उसने आधी झुकी दृष्टि को ऊपर उठाया, थरथराते होंठों को काटा और कांपते हाथों से थाली को छूना चाहा, फिर एकाएक पलटी और अपना मुख आंचल में छिपा कर अपना हाथ मोहन की ओर बढ़ा दिया।
मोहन ने उसकी कोमल अंगुलियों को अपनी हथेली में से लिया और धीरे-धीरे सब चूड़ियां फूल-सी कलाई में चढ़ा दीं। इससे पहले कि मोहन उससे दो-चार प्यार के शब्द कहता, उसने झट से अपना थाल उठाया और वायु के समान तीव्र गति से गांव की ओर भाग गई। खनकती हुई चूड़ियों की झंकार बड़ी देर तक मोहन के कानों में गूंजती रही। कदाचित् आज उसे अपने मन का देवता मिल गया था। वह मन्दिर में जाना भी भूल गई थी।
इधर बंसी अपने बुढ़ापे पर ध्यान न दिये दिन-भर काम में जुटा रहता। उसे अपने बच्चों का पेट भरना था। अपनी बेटी के हाथ पीले करने के लिए चार पैसे जोड़ने थे। उधर गंगा अपने दुःखों को भूल कर प्रेम की आकाश-गंगा में खोई हुई थी। मोहन के साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध दृढ़ होता जाता था। गंगा में अब कुछ परिवर्तन आ गया था। अब वह अपने प्रेम के लिए प्राय: झूठ बोलती। इस झूठ में उसे एक प्रकार का आनन्द आता था।
सावन का महीना था। संध्या समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी। आकाश में घटा छाई हुई थी। बंसी पानी में बिल्कुल भीग कर घर लौटा था। गंगा घर में न थी। उसने मंजू और शरत् से पूछा किन्तु वे अनभिज्ञ थे, क्योंकि वह उन्हें बता कर न गई थी। जब बड़ी देर तक प्रतीक्षा करने पर भी वह न लौटी तो बंसी को चिंता हुई। उसने मंजू और शरत् को उसे खोजने सारे मोहल्ले में दौड़ाया। परन्तु सब व्यर्थ...गंगा का कुछ पता न चला।
क्रोध में बड़बडाते हुए बंसी अपने बिछौने पर आ लेटा। रूपा भी गंगा की खोज करने के बाद वहीं आ गई और बंसी को सांत्वना देने लगी-''घबराओ नहीं काका, वह अभी आ आयेगी। वर्षा के कारण कहीं रुक गई होगी।''
''जवान बेटी इतनी देर तक गांव में बाहर रहे, यह अच्छा नहीं। नहीं जानती कि समय कितना बुरा है।'' बंसी के मुख से यह बात निकली ही थी कि आंगन का द्वार खुला। पानी में भीगी सिमटी हुई गंगा भीतर आई। बापू और रूपा को कनखियों से देखती हुई वह सीधी दूसरे कमरे की ओर बढ़ी।
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