ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
चार
दोपहर बीत चुकी थी। नदी को लोगों ने जितना कूद-फांद कर छेड़ा था, वह उतनी ही मौन बही जा रही थी। सैकड़ों लोगों के पाप उसने अपने वक्ष में छिपा लिये थे।
गंगा जब स्नान के लिए नदी में उतरी तो भीड़ छंट चुकी थी। वातावरण में ठहराव आ गया था। संदल और केवड़े की सुगन्ध फिर मिट्टी की महक में परिवर्तित हो गई थी...वह मिट्टी जो नदी की तेज धारा अपने अन्तर से निकाल कर दोनों किनारों पर बिछा रही थी। उसे पानी की तरंगों में किसी अलौकिक आनन्द का आभास मिल रहा था।
नदी का शीतल जल उसके कोमल अंगों का स्पर्श करता, तो उसे यूं अनुभव होता मानो यह संगीत के पंखों पर उड़ी जा रही हो... एक मधुर गुनगुनाहट से भरी जा रही हो।
स्नान के पश्चात् जब वह पानी से निकली तो, मलमल की साडी उसके अंगों से चिपक रही थी। शरीर पर पानी की बूंदें दमकते हुए मोतियों के समान सुन्दर लग रही थीं। नदी की लहरों में अपने सुडौल तन का प्रतिबिम्ब देखकर गंगा स्वयं विभोर हो उठी पर जल्दी ही लजा कर घाट की ओट में भाग आई।
कपड़े बदल कर बाहर निकली। चबूतरे पर रखा पूजा का थाल देख स्तव्ध रह गई। थाल के पास ही रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां रखी थीं। गंगा ने घबरायी दृष्टि से इधर-उधर देखा। फिर कुछ सोचकर केवल पूजा का थाल लिये वह मन्दिर की ओर चल पड़ी। अभी वह कुछ ही पग चली थी कि किसी ने पुकारा- ''इन चूड़ियों को स्वीकार न करोगी गंगा?''
गंगा वहीं रुक गई और पलट कर देखने लगी। घाट के चबूतरे पर खड़ा मोहन हाथ में चूड़ियां लिये उससे पूछ रहा था। घबराहट से गंगा का हृदय धड़कने लगा। उसे कोई उत्तर न सूझ रहा था। उसे मौन खड़े देखकर, मोहन चूड़ियां लिए उसके निकट चला आया और उसके हाथ से पूजा की थाली लेकर घाट की दीवार पर रख दी। गंगा ने दृष्टि में एक प्रश्न लिए उसकी ओर देखा।
''हाथ बढ़ाओ गंगा! लजाओ नहीं...क्या मुझे पराया समझती हो? देखो तो यह चूड़ियां, इनमें मेरा प्यार गुंथा है, तुम्हारी कलाइयों से निपटने के लिए ये कितनी व्याकुल हो रही हैं।''
गंगा ने मुंह फेर लिया और बिना उत्तर दिये पूजा का थाल उठाने लगी। मोहन आगे बढ़ा और धीमे स्वर में बोला- ''गंगा! यदि तुमने चूड़ियां स्वीकार न कीं तो मैं समझूंगा कि आज तुमने इन्हें नहीं, बल्कि मेरे प्यार को ठुकरा दिया है।''
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