ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''अरी, री! गुस्सा क्यूं करती हो? अभी पिछले साल चम्पा की बहन को यही चूड़ियां पहनाई थीं कि एक ही महीने में उसका डोला उठ गया था...''
किसी की हंसी ने वातावरण का रंग बदल डाला। यह मोहन था, जो बरामदे में शीशे के सामने खड़ा दाढ़ी बना रहा था। गंगा को मोहन की उपस्थिति का तनिक भी भान न था। उसकी हंसी से वह चौंकी और रूपा से बोली-
''नदी स्नान को जाओगी क्या?''
''हां, तो...'' उसने हाथ चूड़ी वाली के आगे बढ़ा दिया।
''तो आओ।''
''थोडा ठहर जाओ... काकी घर में नहीं, लौट आने दो...''
''दोपहर ढले मैं न जा पाऊंगी, अभी जाना...''
''अरी! जाना हो तो जाओ...मैं दबाव में आने वाली नहीं...'' गंगा क्रोध में आकर पलटने लगी कि रूपा ने उसे पुकारा-
''चूड़ियां न पहनोगी?''
'ऊं...हूं…''
''क्यूं?''
''अपने पास व्यर्थ खर्च करने को पैसे कहां जो कांच के टुकड़े खरीदे जायें...''
''अरे! यहां कौन अपना माल लगा रहा है। मोहन भैया ने कहा तो पहनने लगी। तू कहेगी तो तुझे भी पहन देंगें।''
''ना बाबा! हम यूं दूसरों से चूड़ियां नहीं पहनते…'' गंगा ने कहा और चल पड़ी।
गंगा को जाते देख कर रूपा उठने को हुई कि हाथ चूड़ी वाली की पकड़ में होने से कराह उठी। चूड़ीवाली से रहा न गया, वह चिल्लाई-
''अरी! रुक जा बावरी! तुम दोनों के झगड़े में मेरा नुकसान हो जायेगा।''
गंगा चली गई; किन्तु मोहन के मस्तिष्क में यह बात जम कर रह गई--नहीं-हम दूसरों से चूड़ियां नहीं पहनते।
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