ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''गंगा... सरकार...''
''कौन गंगा? ''
''बंसी काका की लौंडिया... माई-बाप...''
''बंसी की लौंडिया...'' प्रताप ने मूंछों को संवारते हुए दोहराया।
''जी हुजूर...! बाप जितना सीधा है उतनी ही यह चंचल है।''
''दोष इसका नहीं मँगलू जवानी होती ही चंचल है,'' प्रताप की भूखी दृष्टि उस ओर उठ गई जहां से गंगा ओझल हुई थी।
''किन्तु यह छोकरी यहाँ क्या लेने आई थी?'' मंगलू ने मालिक के मन के भाव को ताड़ते हुए कहा।
प्रताप बिना उत्तर दिये भीतर चला गया। मंगलू भी उसके साथ हो लिया।
दूसरे दिन सवेरे ही शरत् गली से कूदता-फांदता सूचना लाया कि कोई बड़े व्यक्ति उनके घर आ रहे हैं। गंगा बाप को दवा पिला रही थी। भाई की यह बात सुनकर चौंक पड़ी। इतने में आंगन में आहट हुई और दूसरे ही क्षण प्रताप और मंगलू कमरे की चौखट पर थे। गंगा स्तब्ध सी देखने लगी और वंसी मालिक को देखकर भौंचक-सा रह गया। इससे पहले वे कभी उसके घर न आये थे। अनायास उसके मुख से निकला--
'सरकार...आप!''
''हां, बंसी! पता चला कि तुम्हें बुखार आया है, सोचा देख आऊं,'' यह कहते हुए प्रताप ने घर की मैली फीकी दीवारों पर दृष्टि दौड़ाई। गंगा ने लपककर कुर्सी बिछा दी। प्रताप ने समीप से गंगा को देखा और फिर बंसी को सम्बोधित करते हुए वोला-
''तारा कह रही थी तुम्हें बुखार आ गया है।''
''हां, कल मैंने ही गंगा के हाथ कहलवा भेजा था,'' बंसी ने देखा कि गंगा के नाम पर प्रताप की दृष्टि में एक प्रश्न था। थोड़ा रुककर फिर वह बोला, ''गंगा मेरी बेटी है..''
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