ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
दूसरे दिन शाम को जब गंगा नदी से पानी की मटकी भर कर पहाड़ी की पगडंडी पर चली आ रही थी, तो अचानक बांसुरी की तान सुनकर उसके पाँव रुक गये। बाँसुरी की मधुर ध्वनि उसके लिए जादू का-सा प्रभाव रखती थी। उसके ठहरते ही ध्वनि बन्द हो गई। उसने पलट कर इधर-उधर, देखा, परन्तु कोई दिखाई न दिया। क्षण भर बाद फिर वही तान सुनाई दी। गंगा ने कुछ सोचा और वृक्षों के उस झुंड की ओर बढ़ी जहां से तान आ रही थी। गंगा के रुकते ही तान फिर बन्द हो गई और पत्तों में किसी के हिलने की सरसराहट हुई। दूसरे ही क्षण मोहन हाथ में बाँसुरी लिए उसके सम्मुख खड़ा था। गंगा उसे देखते ही पलटी और वापस लौटने लगी; किन्तु मोहन ने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया।
''देखता हूँ तुम्हें बांसुरी की तान से बड़ा लगाव है...'' मोहन ने बांसुरी को अंगुलियों पर नाचते हुए कहा।
''नहीं तो...'' लाज से गंगा के कपोल कानों तक लाल हो गए।
''यह बात न होती तो तुम यहां खिंची न चली आतीं।''
''मैं...मैं तो गांव की ओर जा रही थी...'' गंगा लड़खड़ाते हुए बोली।
''गांव तो उधर है...और तुम इधर... '' मोहन मुस्कराया।
''नदी से पानी भरने आ रही थी...'' उसने घबराहट को छिपाते हुए उत्तर दिया।
''पर तुम्हारी गगरिया तो पहले से ही छलक रही है...'' मोहन ने गंगा को सिर से पैर तक निहारते हुए कहा।
गंगा से कोई बात न बन रही थी। असमंजस में सिर झुकाये वह उसके सामने खड़ी थी। न रुकते बन रहा था न जाते।
''हमसे बात नहीं करोगी गंगा?'' मोहन ने नम्रता से पूछा।
''ऊं हूँ...''
''क्यों?''
''रास्ते चलती लड़कियों को यूं रोकना इस गांव का रिवाज नहीं...''
''और किसी परदेसी का सिर फोड़ देना इस गांव की रीति है? ''
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