ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
यह बात सुनकर गंगा की झुकी हुई दृष्टि मोहन के माथे पर जा टिकी जहां पर अभी तक चोट का निशान था। क्षण-भर वह उस घाव को देखती रही और फिर आंखें झुकाते हुए बोली-
''इसके लिए मैं लज्जित हूँ और क्षमा मांगती हूं...यह सब अनजाने में ही हुआ...वह पत्थर मैंने जानबूझकर नहीं फेंका था...''
मोहन मुस्कराता हुआ उसके कपोलों पर निखरी उषा को निहारता रहा... गंगा फिर बोली, ''यह चोट आपको मेरे कारण लगी... आपने यह बात काकी से क्यों छिपाई?''
मोहन ने आगे बढ़कर बांसुरी से उसकी ठोड़ी को जरा-सा उठाया और उसकी आंखों में झाँकते हुए बोला, ''इसलिए कि यह चोट मीठी थी, कोमल थी।'' यह कहकर उसकी भावना का अनुमान लगाने के लिए वह रुका और बोला, ''हां गंगा! माथे की यह चोट तो दो-चार दिन में भर जायेगी शायद, किन्तु हृदय का घाव तो आजीवन हरा रहेगा।''
गंगा का हृदय तेजी से धड़कने लगा। उसकी बुद्धि में कुछ न आ रहा था कि क्या कहे, क्यों करे। अचानक उसने दाईं ओर दृष्टि घुमाई, और एक भावी की ओर संकेत करते हुए डर से चिल्लाई, ''सांप...सांप...''
मोहन झट पलट कर उधर बढ़ा और झाड़ी में इधर-उधर देखने लगा; परन्तु यह तो गंगा को इस स्थिति से भाग निकलने की एक युक्ति सूझी थी।
जब मोहन ने मुड़कर उसकी ओर देखा तो वह सिर पर मटकी लिए तेजी से ढलान पर भागी जा रही थी। मोहन ने उसे पुकार कर रोकना चाहा, किन्तु गंगा ने मुडकर भी पीछे न देखा। उसकी गति और भी तेज हो गई। अचानक इसी हड़बड़ाहट में उसका पाँव रपटा और वह धड़ाम से गिरी। मटकी फूट जाने से उसके सारे वस्त्र भीग गये और वह हथेली में मुंह छिपाये लाज से गड़ी वहीं पगडंडी पर बैठ गई।
उस रात जब रूपा उससे मिलने आई तो गंगा ने संध्या में घटी पूरी घटना उसे कह सुनाई। साथ ही उसे मोहन से कुछ न कहने की सौगन्ध भी दिलाई। इस पर रूपा से रहा न गया। उसने सखी का मन टटोलने के लिए पूछा--
''गंगा! तुम्हें मोहन भैया कैसे लगते हैं?''
''सूरत के भले...मन के खोटे...''
''चल हट, बड़ी आई मन परखने वाली...! अभी जाकर भैया को कहती हूँ।'' और यह कहते ही वह भाग खड़ी हुई।
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