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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

खाना खा चुकने के पश्चात् जब बंसी अभी हाथ धो रहा था तो पड़ोस से रूपा की माँ मोहन को साथ लिए वहाँ आ पहुंची। गंगा मोहन को देखते ही खिसककर दीवार की ओट में खड़ी हो गई। बंसी हाथ धोकर उनके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। रूपा की माँ ने मोहन का परिचय कराया--

''मोहन... मेरा भतीजा... शहर से आया है...''

''आओ, बेटा आओ...'' बंसी ने मोहन का स्वागत किया।

''देखते क्या हो मोहन। आगे बढ़ो, पांव छुओ बंसी काका के...'' रूपा की मां ने मोहन को सम्बोधित किया।

मोहन ने झुककर बंसी के चरण छुए। न जाने क्यों गंगा को इस पर हंसी आ गई, किन्तु उसने झट मुंह में आंचल ठूंस लिया।

''अरे। यह माथे पर क्या हुआ?'' बंसी ने मोहन के माथे पर घाव का चिह्न देखते हुए पूछा।

मोहन ने दृष्टि घुमाकर दीवार के साथ लगी खड़ी गंगा को देखा और मुस्कराते हुए बोला- ''चोट लग गई है, यूं ही।''

''हाँ भैया! अपने ही गांव में किसी बदतमीज लड़की ने आते ही निशानी दी है...'' रूपा की मां बोली।

''तब तो मोहन का भाग्य खुल गया...'' बंसी मुस्कराते बोला।

''वह कैसे?''

''क्या याद नहीं भाभी। जब मैं और कुन्दन पहली बार तुम्हारे गांव गये थे, तो कुएँ पर एक अल्हड़ लड़की ने कुन्दन को छड़ी दे मारी थी और कुन्दन ने उसी लड़की से ब्याह करने का निश्चय किया था... और वह लड़की फिर रूपा की मां बन गई।''

''जाओ, हटो...'' इस पर रूपा की मां झेंप गई और बंसी व मोहन को हंसी छूट गई।

बापू की इस बात पर गंगा के मन में किसी सुहावने विचार ने एक अंगड़ाई ली और उसके गालों पर लालिमा छलक उठी। उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया। बापू, रूपा की मां और मोहन को लेकर बरामदे में जा बैठे और वह उसके लिए चिलम पर अंगारे जमाने लगी।

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