ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
तीन
लालटेन की बत्ती को उँचा करके गंगा बापू के विषय में सोचने लगी। आज भी काम से लौटने पर वह शरत् और मंजू से न मिल पायेगा। वे दोनों उसके आने से पूर्व ही सो चुके थे। उसने बच्चों को चादर ओढ़ा दी। उसे यूं लगा मानो वह स्वयं ही उनकी मां है। और इसमें झूठ भी क्या था? मृत्यु से पूर्व - मां - दोनों बच्चे उसको ही सौंप गई थी। उसे अपनी मां के अन्तिम शब्द स्मरण हो आये।
''गंगा, मेरी बेटी! आज के बाद तू इन नन्हें बच्चों की दीदी ही नहीं, मां भी है।''
इस वचन को वह भली-भाँति निभाये जा रही थी। मां की याद से उसकी आंखों में आंसू उमड़ आये। तभी आंगन में आहट हुई और उसने जल्दी से अपनी आंखों के मोती पोंछ डाले।
''कितनी बड़ी उमर है तुम्हारी बापू'' द्वार के पास आ उसने कहा।
''क्यों, मेरे ही विषय में सोच रही थी क्या?''
''हाँ, बापू।'' गंगा ने बापू का कोट व टोपी लेते कहा।
''मंजू और शरत् सो गये क्या?''
''और क्या...देर तक प्रतीक्षा करते रहे...आंखें नींद से बोझल हो गईं तो सो गये..''
''चार दिन से बराबर प्रयत्न कर रहा हूं कि समय पर पहुँचूं, किन्तु काम है कि समाप्त ही नहीं होता..''
''काम...काम...दिन-रात काम। दो-चार दिन की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? देखो तो शरीर कैसा हो गया है? गंगा बिगड़ते हुए बोली।
''छुट्टी...'' बंसी को हंसी आ गई, ''नहीं बेटी,ले-देकर मुझ गरीब के जीवन में एक काम का ही तो नशा है। उसे भी आराम ने छीन लिया, तो क्या रह जाएगा?''
बापू की बात गंगा की बुद्धि में नहीं आई और वह खाना लाने रसोईघर में चल दी। खाने का थाल पिता के सामने परोसते गंगा बोली-- ''इन अमीर लोगों का हदय तो पत्थर का होता है। दो दिन तक बीवी-बच्चों को न मिलें तो जानूं।''
''उनके भाग्य में यह सुख कहां बेटी? मालिक संतानहीन हैं...''
''ओह?'' गंगा ने एक गहरा निश्वास खींचा।
''इतना ही नहीं...पत्नी भी अपाहिज है...एक दुर्घटना में टांग कट गई थी।''
गंगा के मन को एक धक्का-सा लगा। कुछ क्षण के लिए वह बापू के दुःख को भूल गई। वह सोचने लगी, संसारमें दुःख और पीड़ा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
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