ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘बैठ जाओ।’ विष्णु के बाहर चले जाने पर उसने नीरा को बैठने का संकेत करते हुए कहा। स्वर में रुखाई थी किन्तु सवेरे वाला कड़ापन न था।
नीरा चुपचाप सामने बिछी कुर्सी पर बैठ गई। द्वारकादास ने होंठों पर कृत्रिम मुस्कराहट लाते हुए अनुरोध किया।
‘हमारे लिए एक कप चाय न बनाओगी अंतिम बार।’
नीरा ने कोई उत्तर न दिया और कांपते हाथों से चाय का प्याला बनाकर उसकी ओर बढ़ा दिया द्वारकादास ने देखा और अनुभव किया कि आज नीरा ने केवल उसी के लिए चाय बनाई थी, अपने लिए नहीं…फिर भी उसने नीरा को चाय पीने के लिए नहीं कहा।
कुछ देर मौन रहा। चाय के घूंट पीने के बाद द्वारकादास ने एक ठण्डी सांस भरी और बोला—
‘आज हमने निर्णय कर लिया।’
‘क्या?’ उसने पलकों में देखते हुए पूछा।
‘तुम्हें सदा के लिए मुक्त कर दिया जाए…।’ यह कहते हुए द्वारकादास ने ध्यानपूर्वक नीरा के चेहरे को पढ़ा। मुक्त शब्द सुनकर उसकी आंखों में हल्की-सी चमक झलकी जिसे द्वारकादास ने देखा और फिर बोला, ‘किन्तु, सोचता हूं तुम दोनों का क्या होगा?’
‘भगवान पर छोड़ दीजिए…अच्छा ही होगा।
‘इस घर को छोड़ा तो कहां जाओगी?’
‘इतनी बड़ी दुनिया है…कहीं सिर छिपाने को तो स्थान मिल ही जाएगा।’ नीरा ने उत्तर दिया।
‘ओह! यह बात है…यों लगता है निश्चय दृढ़ है…साहस भी बढ़ गया है।’ उसने व्यंग्य कसा।
‘जब कठिनाइयां बढ़ जाती हैं तो स्वयं निर्बलता साहस में परिवर्तित हो जाती है।’
‘चलो अच्छा हुआ…बहुत दिनों से सोच रहा था तुमसे क्यों कर कहूं।’
‘क्या?’
‘जब तुमने मुझे छो़ड़ने का निश्चय कर लिया है तो मैं भी अपनी दुर्बलताओं पर विजय पाने का प्रयत्न कर रहा हूं।’
नीरा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसकी समझ में कुछ न आया कि वह उसे क्या कहना चाहता था। द्वारकादास ने चाय का आखिरी घूंट पीकर खाली प्याला मेज पर रखा और जेब में से कुछ कागजात निकालकर उसके सामने बिछा दिये। नीरा ने ध्यानपूर्वक उन कागजों को देखा और फिर उससे दृष्टि मिलाई।
‘हस्ताक्षर कर दो।’ द्वारकादास ने जेब से पेन निकालकर उसकी ओर बढ़ाया।
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