ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
१३
नीरा को इस घर की चहारदीवारी में एक घुटन-सी अनुभव होने लगी। ज्यों-ज्यों शाम समीप आ रही थी उसका भय बढ़ता जाता था। उसे डर था, रात के पर्दे में द्वारकादास अवश्य प्रतिशोध लेगा।
उसने यह रात भी अचला के घर पर ही व्यतीत करने का निश्चय कर लिया। उसके मस्तिष्क में एक उलझन थी। जिसे वह सुलझा न सकी थी कि वह पारस को किस प्रकार समझाएगी कि उसने घर क्यों छोड़ दिया। वह सब सोचने में उसे शांत वातावरण चाहिये था…इस बंगले में द्वारकादास की उपस्थिति मंि उसके लिए तनिक शांति न थी।
एक अटैची में उसने रात के कपड़े लिए और अचला के यहां जाने को तैयार हो गई। अपने कमरे से निकलकर बाहर जाते हुए उसने बैठक में द्वारकादास को सोफे पर बैठकर सिगार का कश खींचते देखा। नीरा क्षण भर के लिए वहीं ठिठककर रुक गई। दोनों की दृष्टि मिली। उसने चाहा की शीघ्र आगे बढ़ जाए कि द्वारकादास ने पुकारा—
‘नीरा।’
नीरा के पांव वहीं रुक गये। उसने अनुभव किया कि पहली बार अंकल ने उसे नीरू नहीं नीरा कहकर पुकारा था। शायद यह सवेरे के वार्तालाप का प्रभाव था। द्वारकादास ने फिर पुकारा ‘नीरा’ और उसे पास आने का संकेत किया।
नीरा सहमी हुई चुपके से उसके पास आ गई और कांपते हाथों से अटैची को मेज पर रखकर उसकी बात सुनने के लिए खड़ी हो गई। द्वारकादास ने तीखी दृष्टि से उसे सिर से पांव तक निहारा और बोला—
‘कहां की तैयारी है?’
‘अचला के घर जा रही हूं।’
‘रात वहीं काटने का विचार है?’
‘जी…।’
द्वारकादास ने इस ‘जी’ के बीच छिपी कंपन का अनुभव किया। इतने में विष्णु चाय की ट्रे रखकर चला गया।
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