ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘किन्तु सत्य और पवित्र प्रेम ने उस दरार को मिटा दिया है।’
‘यह धोखा है एक—स्वयं तुम्हारी दृष्टि का—जमाने का साधारण सा झोंका भी इस पर्दे को गिरा देगा।’
‘मैं उसे हर झोंके से बचाने का प्रयत्न करूंगी।’
‘इस जन्म में यह काम कठिन होगा।’
‘मैं इसे पूरा करने का प्रयत्न करूंगी।’
‘तो यह तुम्हारा अन्तिम निर्णय है—नीरू।’
‘जी—प्रथम और अन्तिम—मैं अपने पति और प्यार के लिए हर तूफान से लड़ूंगी—यह मेरा जीवन है—यही मेरा प्रण है।’ नीरा ने दृढ़ स्वर में कहा।
‘तो आज से हम दोनों के मार्ग अलग-अलग हो गये।’
‘जी—और।’
‘और क्या?’
‘उनके आते ही हम दोनों सदा-सदा के लिए आपसे दूर चले जाएंगे।’
‘ओह। मैं किसके सहारे जीऊंगा।’ द्वारकादास के मुंह से निकला।
‘इस धन के—धन, जो संसार की हर वस्तु खरीद सकता है—हर खुशी मोल ला सकता है, बड़ी-से-बड़ी नेमत।’ यह कहते हुए नीरा ने आंखें बंद कर लीं…उसका मुख लाल हो गया और वह कंधे झटककर स्नान गृह में चली गई।
द्वारकादास ने क्रोध से अपना हाथ जोर से मेज पर मारा और नीरा का पीछा करना चाहा, किन्तु उसने भीतर से चटकनी चढ़ा ली और फूट-फूटकर रोने लगी। द्वारकादास अपने कमरे में जाकर शराब पीने लगा, किन्तु न रोने से उसकी पीड़ा मिटी, न मदिरा से उसका दुःख दूर हुआ।
दिन यों ही ढल गया। न नीरा अपने कमरे से बाहर निकली और न द्वारकादास फिर उसके कमरे में आया। वह आज दिन भर दफ्तर भी न गया था, घर भर में एक उदासी और खिन्नता की छाया पड़ गई थी। द्वारकादास की आशाओं पर पानी फिर गया था। उसकी कामनाएं राख में मिल गई थीं। वह किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय पर पहुंचना चाहता था। नीरा ने दो एक बार खिड़की से झांककर देखा। वह बड़ी देर का बैठा वकील साहब से कोई परामर्श कर रहा था।
नीरा ने सवेरे से कुछ नहीं खाया था और न किसी ने उसे खाने के लिए पूछा ही…स्वयं उसकी भूख मर चुकी थी…इस स्थिति में अंकल का खाना भी उसके लिए विष होता।
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