ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘आपको मेरी खुशियों के लिए कुर्बानी देनी होगी।’ नीरा की आंखों में आंसू छलक आये, उन्हें द्वारकादास ने देखा और अनुभव किया। इन आंसुओं में वह पीड़ा झलक रही थी जो दिल की गहराइयों से अचानक उभर आई थी किन्तु अनजान बनते हुए उसने पूछा—
‘कैसी कुर्बानी?’
‘आप मुझे अपने इस बंधन से मुक्त कर दें—सदा के लिए।’
‘असम्भव…।’ द्वारकादास ने गरजकर कहा और हाथ उसके कंधे से हटा लिए। फिर सम्भलते हुए धीरे से बोला—‘नहीं नीरू! यह मेरी मृत्यु होगी…तुम चाहती हो मेरी मृत्यु?’
‘तो फिर आपको मुझसे प्रेम न था—एक वासना थी—काम की भूख थी यह जिसने आपको दीवाना बना रखा था।’ नीरा ने कहा।
‘हो सकता है यह ठीक ही हो।’
‘तो फिर अब आपको इसके लिए दिल पर पत्थर रखना होगा।’
‘नीरू।’ कुछ देर चुप रहने के बाद फिर द्वारकादास ने उसे सम्बोधित किया और बोला—‘यह सच है कि सच्चा प्रेम कुर्बानी मांगता है?’
‘जी।’ थरथराती जबान ने नीरा ने कहा।
‘तो उस सच्चे प्रेम के नाम पर तुम वही करो जिसकी कामना तुम मुझसे रखती हो।’
‘क्या?’
‘पारस को सदा के लिए अपने जीवन से अलग कर दो।’
‘क्यों?’ वह चिल्लाई।
‘प्रेम बलिदान मांगता है—मेरा प्रेम—तुम्हारा प्रेम—यह जवानी दो दिनों की बहार है—कल चली जाएगी तो तुम जीवन को कांटों पर तो नहीं बिता सकोगी, आराम चाहिये इस सुन्दर शरीर को—सुख चाहिये—और सुख और आराम तुम्हें केवल मेरे पास मिल सकता है इसी घर में।’
‘और यदि जीवन में ये सुख-सुविधाएं अपने प्रेम के लिए छोड़ दूं तो?’
‘क्यों?’
‘इसलिए कि मुझे आपसे कोई प्रेम नहीं—कोई सहानुभूति नहीं, वह बचपन की एक भूल थी, एक नादानी थी जो जीवन की दुर्बलता बनकर रह गई। आप वर्षों तक मुझे पाप के सागर में डुबोते रहे—अब मैं संभलना चाहती हूं…उस पाप से निकलना चाहती हूं—अंकल…! अब मैं एक ब्याहता स्त्री हूं—मैं अपने गृहस्थ को संवारना चाहती हूं—।’ यह कहते-कहते वह रो पड़ी।
‘स्त्री का अस्तित्व एक शीशा है—एक बार टूट गया तो टूट गया। उसमें पड़ी हुई दरार अब न जाएगी टुकड़ों को मिलाने से।’ द्वारकादास ने विषैली मुस्कराहट होंठों पर लाते हुए कहा।
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