ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘क्या है?’
‘मेरी जायदाद और कम्पनी के जो शेयर्स तुम्हारे नाम मैंने किये थे…वह वापस ले रहा हूं।’
‘किन्तु वे शेयर्स तो…।’
‘तुम्हारे डैडी के थे…है ना…किन्तु एक लम्बे समय से वह मेरे पास गिरवी थे—वह मेरे देनदान थे।’
‘तो क्या…?’
‘हां नीरा। जब मन का नाता टूट जाए तो जीवन एक व्यापार बनकर रह जाता है, और व्यापार के नियम में मैं पक्का हूं…वह तो तुम भली-भांति जानती हो।’
नीरा ने कांपती उंगलियों से सब कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए। जब वह नीचे के अन्तिम प्रोनोट पर हस्ताक्षर करने लगी तो द्वारकादास ने संकेत से उसे रोक दिया। यह प्रोनोट पारस का था, उस कर्जे की बाबत जो उसने बहन के ब्याह पर द्वारकादास से लिया था। नीरा की आंखों में छिपा अनुरोध देखकर वह मुस्करा पड़ा।
‘ऐसा नहीं हो सकता…अंकल।’ नीरा ने रुकते-रुकते कहा।
‘क्या?’
‘इस प्रोनोट पर भी मैं ही हस्ताक्षर कर दूं…आप विश्वास रखिए, मैं पाई-पाई चुका दूंगी।’
‘तुम अपने सिर पर यह बोझ क्यों लेती हो?’
‘उनका बोझ मेरा बोझ है।’
नीरा के इस वाक्य ने मानो द्वारकादास के घाव पर नमक छिड़क दिया हो। कुछ रुककर वह बोली—
‘मैं नहीं चाहती वह हमारे मतभेद को भांप लें…।’
‘यह तो एक न एक दिन स्पष्ट होगा ही।’ द्वारकादास ने कहा।
‘इसकी बाबत मैं भी समझ रही हूं, धीरे-धीरे सब समझा दूंगी, किन्तु…।’ कहते-कहते रुक गई।
‘किन्तु क्या?’
‘मैं नहीं चाहती कि आपत्ति का यह पर्वत एक साथ हम पर टूट पड़े।’
‘इसमें डर कैसा—अब तो तुम्हारी धमनियों में पारस का प्यार प्रवाहित है—वह प्यार जिसने तुम्हें तूफानों से उलझने की शक्ति प्रदान की है।’
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