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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

द्वारकादास गहरी सोचों में खो गया और धीरे-धीरे चाय पीने लगा। एकाएक उसके होंठ थर्राये और प्याले से अलग हो गए। किसी गाड़ी की घर्र-घर्र ने उसके विचारों की कड़ी को तोड़ दिया था। उसने दृष्टि घुमाकर नीचे देखा। कोठी के मुख्य फाटक के पास एक टैक्सी आकर रुकी थी और नीरा उससे उतरकर किराया चुका रही थी।

नीरा को देखते ही द्वारकादास के शरीर में एक सिरहन-सी दौड़ गई मानो पी हुई शराब का उसकी धमनियों में जाकर अचानक उफान आ गया हो वह आंखें फाड़कर उसे देखने लगा। रात भर वह उसके पांवों की चाप सुनने के लिए व्याकुल हो रहा था और अब उनके कान उसकी आहट पर लगे हुए थे।

टैक्सी का बिल चुकाकर नीरा बाहर आई। उसकी चाल में विशेष दृढ़ता थी—इस समय, जैसे एक ही रात ने उसमें कोई भारी परिवर्तन कर दिया हो। न जाने क्यों द्वारकादास की धमनियों में उत्तेजित हुआ रक्त एकाएक फिर शीत पड़ गया।

सीढ़ियों को पार करने के बाद अपने कमरे की ओर बढ़ने लगी कि द्वारकादास को बॉल्कनी में बैठा देखकर ठिठक गई। वह सोच रही थी कि उसे किस प्रकार संबोधित करे कि स्वयं द्वारकादास ने उसकी कठिनाई दूर कर दी।

‘पार्टी समाप्त हो गई क्या?’ उसने व्यंग्य से कहा।

‘वह तो शाम को ही समाप्त हो चुकी थी।’ वह बिना किसी झिझक के कह उठी।

‘और रात भर क्या होता रहा?’ क्रोध में भरे द्वारकादास ने पूछा।

‘प्रतीक्षा।’ नीरा के स्वर में तनिक भी डर न था।

‘किसकी?’

‘सवेरा होने की।’ वह धीरे से बोली और अपने कमरे की ओर जाने लगी।

‘नीरू।’ द्वारकादास ने उसे रोकते हुए पुकारा।

‘जी।’

‘यों रात भर घर से बाहर रहना लड़कियों को शोभा नहीं देता।’

‘किन्तु, इस घुटी हुई चहारदीवारी से वह खुला वातावरण अच्छा था। वहां जीवन चले जाने का भय हो सकता है, किन्तु इज्जत का नहीं।’ नीरा ने दृढ़ स्वर में कहा और कंधे झटककर अपने कमरे में चली गई।

द्वारकादास कर्कश आवाज में उसका नाम पुकारकर रह गया, आज से पहले उसने ऐसे शब्द किसी के मुख से न सुने थे और फिर नीरा से उसे ऐसी आशा कदापि न हो सकती थी। अत्यन्त क्रोध में होंठ फड़फड़ाये और वह लहू पीकर रह गया।

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